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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१८७ आकाशथिग्गल के स्पष्ट-अस्पृष्ट की समीक्षा-- "थिग्गल' शब्द से यहाँ आकाशथिग्गल समझना चाहिए। सम्पूर्ण आकाश एक विस्तृत पट के समान है। उसके बीच में लोक उस विस्तृत पट के थिग्गल (पैबन्द) की तरह प्रतीत होता है। अतः लोकाकाश को थिग्गल कहा गया है। प्रथम सामान्य प्रश्न है- इस प्रकार का आकाशथिग्गलरूप लोकाकाश किससे स्पृष्ट अर्थात् व्याप्त है ? तत्पश्चात् विशेषरूप में प्रश्न किया गया है कि धर्मास्तिकाय से लेकर त्रसकाय तक, यहाँ तक कि अद्धा-समय' तक से कितने कायों से स्पृष्ट है? लोक सम्पूर्ण धर्मारितकाय से स्पृष्ट है, क्योंकि धर्मास्तिकाय पूरा का पूरा लोक में ही अवगाढ है, अतएव वह धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं हैं, क्योंकि जो जिसमें पूरी तरह व्याप्त है, उसे उसके एक देश में व्याप्त नहीं कहा जा सकता किन्त लोक धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से व्याप्त तो है ही: क्योंकि धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेश लोक में ही अवगाढ हैं। यही बात अधर्मास्तिकाय के विषय में समझनी चाहिएः किन्तु लोक स्पपूर्ण आकाशस्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, क्योंकि लोक सम्पूर्ण आकाशस्तिकाय का एक छोटा-सा खण्डमात्र हो है, किन्तु वह आकाशस्तिकाय से लेकर वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है। सूक्ष्म पृथ्वीकायादि समग्र लोक में व्याप्त हैं। अतएव उनके द्वारा भी वह पूर्णरूप से स्पृष्ट है, किन्तु त्रसकाय से क्वचित् स्पृष्ट होता है, क्वचित् स्पृष्ट नहीं भी होता । जब केवली, समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने आत्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं। केवली भगवान् त्रसकाय के ही अन्तर्गत हैं, अतएव उस समय समस्त लोक त्रसकाय से स्पृष्ट होत है। इसके अतिरिक्त अन्य समय में सम्पूर्ण लोक त्रसकाय से स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि त्रसजीव सिर्फ त्रसनाडी में ही पाए जाते हैं। जो सिर्फ एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है। अद्धा-समय से लोक का कोई भाग स्पृष्ट होता है और कोई भाग स्पृष्ट नहीं होता। अद्धा-काल अढ़ाई द्वीप में ही है, आगे नहीं। 'आकाशथिग्गल' और 'लोक' में अन्तर- पहले लोक को 'आकाशथिग्गल' शब्द से प्ररूपित किया था, अब इसी को सामान्यरूप से 'लोक' शब्द द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इसलिए विशेष और सामान्य का अन्तर है। 'लोक' संबंधी निरूपण 'आकाशथिग्गल' के समान ही है। ॥पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०७-३०८
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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