SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवाँ भाषापद [७३ जनसाधारण 'कमल' अर्थ ही समझत हैं। शैवाल आदि को कोई पंकज नहीं कहता। अतएव कमल को 'पंकज' कहना सम्मतसत्य भाषा है। (३) स्थापनासत्या - तथाविधि (विशेष प्रकार के ) अंकादि के विन्यास तथा मद्रा आदि के ऊपर रचना (छाप) देखकर जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह स्थापनासत्य भाषा है। जैसे '१' अंक के आगे दो बिन्दु देखकर कहना - यह सौ (१००) है, तीन बिन्दु देखकर कहना - यह एक हजार (१०००) है। अथवा मिट्टी, चांदी, सोना आदि पर अमुक मुद्रा (मुहरछाप) अंकित देखकर माष, कार्षापण, मुहर (गिन्नी), रुपया आदि कहना । (४) नामसत्या - केवल नाम के कारण ही जो भाषा सत्य मानी जाती है. वह नामसत्या कहलाती है। जैसे - कोई व्यक्ति अपने कल की वद्धि नहीं करता, फिर भी उसका नाम 'कुलवर्द्धन' कहा जाता है। (५) रूपसत्या - जो भाषा केवल अमुक रूप (वेशभूषा आदि) से ही सत्य है। जैसे - किसी व्यक्ति ने दम्भपूर्वक साधु का रूप (स्वांग) बना लिया हो, उसे, 'साधु' कहना रूपसत्या भाषा है। (६) प्रतीत्यसत्या - जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से सत्य हो। जैसे - अनामिका अंगुली को 'कनिष्ठा' (सबसे छोटी) अंगुली की अपेक्षा से दीर्घ कहना, और मध्यमा की अपेक्षा से हस्व कहना प्रतीत्यसत्या भाषा है। (७) व्यवहारसत्या - व्यवहार से - लोकविवक्षा से जो सत्य हो वह व्यवहारसत्य भाषा है। जैसे - किसी ने कहा - 'पहाड़ जल रहा है' यहाँ पहाड़ के साथ घास की अभेदविवक्षा करके ऐसा कहा गया है। अत: लोकव्यवहार की अपेक्षा से ऐसा बोलने वाले साधु की भाषा भी व्यवहारसत्या होती है। (८) भावसत्या - भाव से अर्थात् - वर्ण आदि (की उत्कटता) को लेकर जो भाषा बोली जाती हो, वह भावसत्या भाषा है। अर्थात् – जो भाव जिस पदार्थ में अधिकता से पाया जाता है, उसी के आधार पर भाषा का प्रयोग करना भावसत्या भाषा है। जैसे - बलाका (बगुलों की पंक्ति) में पांचों वर्ण होने पर भी उसे श्वेत कहना। (९) योगसत्या - योग का अर्थ है - सम्बन्ध, संयोगः उसके कारण जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे - छत्र के योग से किसी को छत्री कहना, भले ही शब्दप्रयोगकाल में उसके पास छत्रं न हो। इसी प्रकार किसी को दण्ड के योग से दण्डी कहना। (१०) औपम्यसत्या - उपमा से जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे - गौ के समान गवय (रोम्भ) होता है। इस प्रकार की उपमा पर आश्रित भाषा औपम्यसत्या कहलाती है। दशविध पर्याप्तिका मृषाभाषा की व्याख्या - (१) क्रोधनिःसृता - क्रोधवश मुंह से निकली हुई भाषा, (२) माननिःसृता - पहले अनुभव न किये हुए ऐश्वर्य का, अपना आत्मोत्कर्ष बताने के लिए कहना कि हमने भी एक समय ऐश्वर्य का अनुभव किया था, यह कथन मिथ्या होने से माननिःसृता है। (३) मायानिःसृता - परवंचना आदि के अभिप्राय से निकली हुई वाणी। (४) लोभनिःसृता - लोभवश, झूठा तौल-नाप करके पूछने पर कहना यह तौल-नाप ठीक प्रमाणोपेत है, ऐसी भाष लोभनि:सृता है। (५) प्रेय (राग) निःसृता - किसी के प्रति अत्यन्त रागवश कहना – 'मै तो आपका दास हूँ', ऐसी भाषा प्रेयनिःसृता है। (६) द्वेषनिःसृता - द्वेषवश तीर्थकरादि का अवर्णवाद करना। (७) हास्यनिःसृता - हंसी-मजाक में झूठ बोलना। (८) भयनिःसृता - भय से निकली हुई भाषा। जैसे - चोरों आदि के डर से कोई अंटसंट या ऊटपटांग बोलता है, उसकी भाषा भयनि:सृता है। (९) आख्यानिकानिःसृता - किसी कथा-कहानी के
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy