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________________ [प्रज्ञापनासूत्र (६) जीवाजीवमिश्रिता, (७) अनन्त-मिश्रिता, (८) परित्त (प्रत्येक)-मिश्रिता, (९) अद्धामिश्रिता और (१०) अद्धद्धामिश्रिता । ८६६. असच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुवालसविहा पण्णत्ता । तं जहा आमंतणि १ याऽऽणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी ४ य पण्णवणी ५। पच्चक्खाणी भासा ६ भासा इच्छाणुलोमा ७ य ॥१९६॥ अणभिग्गहिया भासा ८ भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा ९। संसयकरणी भासा १० वोयडा ११ अव्वोयडा १२ चेव ॥१९७॥ [८६६ प्र.] भगवन् ! असत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [८६६ उ.] गौतम ! (वह) बारह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार - [गाथार्थ - ] (१) आमंत्रणी, (२) आज्ञापनी, (३) याचनी, (४) पृच्छनी, (५) प्रज्ञापनी, (६) प्रत्याख्यानी भाषा, (७) इच्छानुलोमा भाषा, (८) अनभिगृहीता भाषा, (९) अभिगृहीता भाषा, (१०) संशयकरणी भाषा, (११) व्याकृता और (१२) अव्याकृता भाषा ॥१९६-१९७ ॥ विवेचन - पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. ८६० से ८६६ तक) में भाषा के मूल दो भेद - पर्याप्तक, अपर्याप्तक के भेद प्रभेदों का निरूपण किया गया है। ___पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका की व्याख्या - पर्याप्तिका - वह भाषा है, जो प्रतिनियत रूप में समझी जा सके। पर्याप्तिका भाषा सत्या और मृषा, ये दो ही होती हैं, क्योंकि ये दो भाषाएँ ही प्रतिनियतरूप से अवधारित की जा सकती हैं। अपर्याप्तिका भाषा वह है, जो मिश्रितप्रतिरूप अथवा मिश्रित-प्रतिषेधरूप होने के कारण प्रतिनियतरूप में अवधारित न की जा सके। अर्थात् – ठीक तरह से निश्चित न की जा सकने के कारण जिसे सत्य या असत्य दोनों में से किसी एक कोटि में रखा न जा सके। अपर्याप्तिका भाषाएँ दो हैं - सत्यामृषा और असत्यामृषा । ये दोनों ही प्रतिनियतरूप में अवधारित नहीं की जा सकती। दशविध सत्यपर्याप्तिका भाषा की व्याख्या - (१) जनपदसत्या - विभिन्न जनपदों (प्रान्तों या प्रदेशों) में जिस शब्द का जो अर्थ इष्ट है, उस इष्ट अर्थ का बोध कराने वाली होने के कारण व्यवहार का हेतु होने से जो सत्य मानी जाती है। जैसे कोंकण आदि प्रदेशों में पय को 'पिच्चम्' कहते हैं। सम्मतसत्या - जो समस्तलोक में सम्मत होने के कारण सत्यरूप में प्रसिद्ध है। जैसे - शैवाल, कुमुद (चन्द्रविकासी कमल) और कमल (सूर्यविकासी कमल) ये सब पंकज हैं - कीचड़ में ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु 'पंकज' शब्द से
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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