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________________ ३४६] [प्रज्ञापनासूत्र १२५५. से णूणं भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमति ? हंता गोयमा ! सुक्कलेस्सा तं चेव । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमति ? गोयमा ! आगारभावमाताए वा जाव सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गता ओसक्वति, सेएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव णो परिणमति । ॥लेस्सापदे पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ [१२५५ प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् (उसके वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरूप में पुनः पुनः) परिणत नहीं होती ? _[१२५५] हाँ गौतम ! शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को पा कर उसके स्वरूप में परिणत नहीं होती, इत्यादि सब वही (पूर्ववत् कहना चाहिए।) [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि शुक्ललेश्या (पद्मलेश्या को प्राप्त होकर) यावत् (उसके स्वरूप में तथा उसके वर्ण-गन्ध-रस स्पर्शरूप में) परिणत नहीं होती? [उ.] गौतम ! आकारभावमात्र से अथवा प्रतिविम्बमात्र से यावत् (वह शुक्ललेश्या पद्मलेश्या-सी प्रतीत होती है), वह (वास्तव में) शुक्ललेश्या ही है, निश्चय ही वह पद्मलेश्या नहीं होती। शुक्ललेश्या वहाँ (स्व-स्वरूप में) रहती हुई अपकर्ष (हीनभाव) को प्राप्त होती है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् (शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में) परिणत नहीं होती । विवेचन - लेश्याओं के परिणामभाव की प्ररूपणा - प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १२५१ से १२५५ तक) में एक लेश्या का दूसरी लेश्या को प्राप्त कर उसके स्वरूप में परिणत होने का निषेध किया गया है। पूर्वापर विरोधी कथन कैसे और क्या समाधान ? - यहाँ आशंका होती है कि पूर्व सूत्रों (सू. १२२० से १२२५ चतुर्थ उद्देशक, परिणामाधिकार) में कृष्णादि लेश्याओं को, नीलादि लेश्याओं के स्वरूप में तथा उनके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में परिणत होने का विधान किया गया है, परन्तु यहाँ उसके तद्प-परिणमन का निषेध किया गया है। ये दोनों कथन पूर्वापर विरोधी हैं। इसका क्या समाधन ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि पहले परिणमन का जो विधान किया गया है, वह तिर्यचों और मनुष्यों की अपेक्षा से है और इन सूत्रों में परिणमन का निषेध किया गया है, वह देवों और नारकों की अपेक्षा से है। इस प्रकार दोनों कथन विभिन्न अपेक्षाओं से होने के कारण पूर्वापरविरोधी नहीं हैं । देव और नारक अपने पूर्वभवगत अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से लेकर आगामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक उसी लेश्या में अवस्थित होते हैं। अर्थात् उनकी जो लेश्या पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में थी, वही वर्तमान देवभव या नारकभव में भी कायम रहती है और आगामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में भी रहती है। इस कारण देवों और नारकों के कृष्णलेश्यादि के द्रव्यों का परस्पर सम्पर्क होने पर भी वे एक-दूसरे को अपने स्वरूप में परिणत नहीं करते।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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