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सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक]
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लेश्याओं का परस्पर सम्पर्क होने पर भी एक दूसरे के रूप में परिणत क्यों नहीं ? इस प्रश्न का समाधान मूल में किया गया है कि कृष्णलेश्या आकार भाव मात्र से ही अथवा प्रतिविम्बमात्र से ही नीललेश्या होती है, वास्तव में वह नीललेश्या नहीं बन जाती। आकारभाव का अर्थ- छाया-मात्र सिर्फ झलक। आशय यह है कि कृष्णलेश्या के द्रव्यों पर नीललेश्या के द्रव्यों की छाया पड़ती है, इस कारण वह नीललेश्या-सी प्रतीत होती है। अथवा जैसे दर्पण आदि पर प्रतिबिम्ब पड़ने पर दर्पणादि उस वस्तु-से प्रतीत होने लगते हैं। उसी प्रकार कृष्णलेश्या के साथ नीललेश्या का सन्निधान (निकटता) होने पर कृष्णलेश्या पर नीललेश्या के द्रव्यों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब कृष्णलेश्याद्रव्य नीललेश्याद्रव्यों के रूप में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं, किन्तु उनमें परिणम्य-परिणामकभाव घटित नहीं होता। जैसे दर्पण अपने आप में दर्पण हो रहता है, उसमें प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तु नहीं बन जाता। इसी प्रकार कृष्णलेश्या पर नीललेश्या का प्रतिबिम्ब पड़ने पर वह नीललेश्या-सी प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में वह नीललेश्या में परिणत नहीं होती, वह कृष्णलेश्या ही बनी रहती है। यों प्रतिबिम्ब या छाया के अभिप्राय से मूल में कहा परिणमन उसमें नहीं होता। इसी अभिप्राय से मूल में कहा गया है- वह वस्तुतः कृष्णलेश्या ही है, नीललेश्या नहीं, क्योंकि उसने अपने स्वरूप का परित्याग नहीं किया है। जैसे दर्पण आदि जपाकुसुम आदि औपाधिक द्रव्यों के सन्निधान से उनके प्रतिबिम्बमात्र को धारण करते हुए दर्पण आदि ही बने रहते हैं तथा जपाकुसुमादि भी दर्पण नहीं बन जाते । इसी प्रकार कृष्णलेश्या नीललेश्या नहीं बन जाती, अपितु कृष्णलेश्या से नीललेश्या विशुद्ध होने के कारण कृष्णलेश्या अपने स्वरूप में स्थित रहती हुई नीललेश्या के आकारभावमात्र या प्रतिबिम्बमात्र को धारण करती हुई किञ्चित् विशुद्ध हो जाती है। इसी अभिप्राय से यहाँ कहा गया है- 'तत्थ गता ओस्सक्नति'- उस रूप में रहती हुई कृष्णलेश्या (नीललेश्या के सन्निधान से) उत्कर्ष को प्राप्त होती है। किन्तु शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या हीनपरिणाम वाली होने से पद्मलेश्या के सन्निधान से उसके आकारभाव या प्रतिबिम्बमात्र को धारण करके कुछ अविशुद्ध हो जाती है- अपकर्ष को प्राप्त हो जाती हैं।
अन्य लेश्याओं के सम्बन्ध में अतिदेश - यद्यपि मूलपाठ में अन्य लेश्याओं सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं दी है, तथापि मूल टीकाकार ने उनके सम्बन्ध में व्याख्या की है। इसलिए शुक्ललेश्या के साथ जिस प्रकार पद्मलेश्या की वक्तव्यता है उसी प्रकार पद्मलेश्या के साथ तेजोलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता, तेजोलश्या के साथ कापोत, नील और कृष्णलेश्या-विषयक वक्तव्यता, कापोतलेश्या के साथ नील और कृष्णलेश्या-विषयक वक्तव्यता तथा नीललेश्या को लेकर कृष्णलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता घटित कर लेनी चाहिए ।
॥सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक समाप्त ॥
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७२-३७२ २. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७२