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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] [ ३७९ अवेदक जीव की स्थिति अवेदक जीव दो प्रकार के हैं- सादि - अपर्यवसित और सादि - सपर्यवसित । जो जीव क्षपक श्रेणी को प्राप्त करके अवेदी हो जाता है, वह सादि-अपर्यवसित अवेदी कहलाता है, क्योंकि ऐसा जीव फिर कभी सवेदी नहीं हो सकता। जो जीव उपशम श्रेणी को प्राप्त करके अवेदक होता है, वह सादि - सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि उसकी अवेद - अवस्था की आदि भी है और गिर कर नौवें गुणस्थान में आने पर अन्त भी हो जाता है। इनमें से जो सादि सपर्यवसित अवेदक है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर अवेदक रहता है, क्योंकि जो जीव एक समय तक अवेदक रह कर दूसरे ही समय में मर कर देवगति में जन्म लेता है, वह पुरुषवेद का उदय होने से सवेदक हो जाता है। इस कारण यहाँ अवेदक का कालमान जघन्य एक समय कहा है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहने का कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् श्रेणी से पतित होने पर उसके वेद का उदय हो जाता है । नपुंसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति - नपुंसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति वनस्पतिकाल तक अर्थात्- अनन्तकाल तक की बताई है, उसका कारण यह है कि वनस्पति के जीव नपुंसकवेदी होते हैं और उनका काल अनन्त है । सातवाँ कषायद्वार - १३३१. सकसाई णं भंते ! सकसाईति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सकसाई तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपज्जवसिए ३ जाव (सु. १३२६ ) अवड्डुं पोग्गलपरियट्टं देसूणं । [१३३१ प्र.] भगवन् ! सकषायी जीव कितने काल तक सकषायीरूप में रहता है ? [१३३१ उ.] गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के कहे हैं, वे इस प्रकार - ( १ ) अनादि अपर्यवसित, (२) अनादिं-सपर्यवसित और (३) सादि - सपर्यवसित। इनमें से जो सादि - सपर्यवसित है, उसका कथन सू. १३२६ में उक्त सादि-सपर्यवसित सवेदक के कथनानुसार यावत् क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (करना चाहिए।) १. [१३३२ उ.] गौतम ! ( वह) जघन्यत: भी उत्कृष्टत: भी अन्तर्मुहूर्त तक ( क्रोधकषायी रूप में रहता है ।) इसी प्रकार यावत् (मानकषायी और) मायाकषायी (की कालावस्थिति कहनी चाहिए । ) २. १३३२. कोहकसाई णं भंते ! कोहकसाई त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । एवं जाव मायकसाई । [१३३२ प्र.] भगवन् ! क्रोधकषायी क्रोधकषायीपर्याय से युक्त कितने काल तक रहता है ? (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८५ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृष्ठ ३९९-४००
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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