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[ प्रज्ञापनासूत्र
[उ.] गौतम (वह) तीन प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार जिससे स्व का, पर का अथवा स्वपर दोनों का मन अशुभ कर दिया जाता है, वह (त्रिविध) प्राद्वेषिकी क्रिया है ।
१५७१. पारियावणिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तं जहा- जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असायं वेदणं उदीरेति । से तं पारियावणिया किरिया ।
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[१५७१ प्र.] भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ?
[उ.] गौतम ! ( वह) तीन प्रकार की कही गई है, जैसे- जिस प्रकार से स्व के लिए, पर के लिए या स्व-पर दोनों के लिए असाता (दुःखरूप) वेदना उत्पन्न की जाती है, वह है- (त्रिविध) पारितापनिकी क्रिया ।
१५७२. पाणातिवातकिरिया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता । तं जहा- जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवे । सेत्तं पाणाइवायकिरिया ।
[१५७२ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातक्रिया कितने प्रकार की कही गई है ?
[उ.] गौतम ! (वह) तीन प्रकार की कही गई है, यथा- ( ऐसी क्रिया) जिससे स्वयं को दूसरे को, अथवा स्व-पर दोनों को जीवन से रहित कर दिया जाता है, वह (त्रिविध) प्राणातिपातक्रिया है ।
विवेचन - हिंसा की दृष्टि से क्रियाओं के भेद-प्रभेद - प्रस्तुत ६ सूत्रों ( १५६७ से १५७२ तक) में क्रियाओं के मूल ५ भेद और उनके उत्तरभेदों का निरूपण हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से किया गया है।
क्रियाओं का विशेषार्थ - क्रिया : दो अर्थ- (१) करना, (२) कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा । कायिकी - काया से निष्पन्न होने वाली। आधिकरणिकी- जिससे आत्मा नरकादि दुर्गतियों में अधिकृतस्थापित की जाए, वह अधिकरण- एक प्रकार का दूषित अनुष्ठानविशेष । अथवा तलवार, चक्र आदि बाह्य हिंसक उपकरण । अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया आधिकरणिकी। प्राद्वेषिकी- प्रद्वेष- यानी मत्सर, कर्मबन्ध का कारण जीव का अकुशल परिणाम - विशेष । प्रद्वेष से होने वाली प्राद्वेषिकी । पारितापनिकीपरितापना अर्थात् पीड़ा देना। परितापना से या परितापना में होने वाली प्राद्वेषिकी । प्राणतिपातिकी - इन्द्रियादि १० प्राणों में से किसी प्राण का अतिपात - विनाश, प्राणातिपात । प्राणातिपात - विषयक क्रिया । अनुपरतकायिकीदेशत: या सर्वतः सावद्ययोगों से जो विरत हो वह उपरत। जो उपरत - विरत न हो, वह अनुपरत । अर्थात् काया से प्राणातिपातादि से देशत: या सर्वतः विरत न होना अनुपरतकायिकी । यह क्रिया अविरत को लगती है । दुष्प्रयुक्तकायिकी - काया आदि का दुष्ट प्रयोग करना । यह क्रिया, प्रमत्तसंयत को लगती है, क्योंकि प्रमत्त होने पर काया का दुष्प्रयोग सम्भव है। संयोजनाधिकरणिकी- पूर्व निष्पादित हल, मूसल, शस्त्र, विष आदि हिंसा के कारणभूत उपकरणों का संयोग मिलाना संयोजना है। वही संसार की कारणभूत होने से संयोजनाधिकरणिकी है। यह क्रिया पूर्व निर्मित हलादि हिंसोपकरणों के संयोग मिलाने वाले को लगती है।