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________________ बाईसवाँ क्रियापद ] से लेकर स्तनितकुमार तक (के क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए। ) १६६०. मिच्छादंसणसल्लविरयस्स णं भंते! पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा । गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मायावत्तिया किरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया सिय णो कज्जइ, मिच्छादंसणवत्तिया किरिया णो कज्जति । [१६६० प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा मिथ्यादर्शनशल्यविरत पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की (क्रियासम्बन्धी है ।) [उ.] गौतम ! ( उसके आरम्भिकीक्रिया होती है, यावत् मायाप्रत्ययाक्रिया होती है । अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं होती है। [ ५६७ १६६१. मणूसस्स जहा जीवस्स (सु. १६५७ ) । [१६६१] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) मनुष्य का क्रियासम्बन्धी प्ररूपण (सू. १६५७ में उक्त सामान्य ) जीव (के क्रियासम्बन्धी प्ररूपण) के समान (समझना चाहिए।) १६६२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयस्स (सु. १६५८ ) । [१६६२] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का (क्रियासम्बन्धी कथन सू. १६५८ में उक्त) नैरयिक ( के क्रियासम्बन्धी कथन) के समान (समझना चाहिए।) विवेचन - अष्टादशपापस्थानविरत जीवादि में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत १३ सूत्रों (१६५० से १६६२ तक) में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य से विरत सामान्य जीव तथा चौवीसदण्डकवर्ती जीवों को लगने वाली आरम्भिकी आदि क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। - स्पष्टीकरण-प्राणातिपात से लेकर मायामृषा से विरत ( औधिक) जीव तथा मनुष्य के आरम्भिकीऔर मायाप्रत्यया क्रिया विकल्प से लगती है, शेष तीन पारिग्रहिकी, अप्रत्याख्यानप्रत्यया एवं मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया नहीं लगती, क्योंकि जो जीव या मनुष्य प्राणातिपात से विरत होता है, वह सर्वविरत होता है, इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक ही महाव्रत ग्रहण करता है, हिंसादि का प्रत्याख्यान करता है तथा अपरिग्रहमहाव्रत को भी ग्रहण करता है, इसलिए मिथ्यादर्शनप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया और पारिग्रहिकी क्रिया उसे नहीं लगती। प्राणातिपातविरत प्रमत्तसंयत के आरम्भिकी क्रिया होती है, शेष सर्वविरत को नहीं होती। अप्रमत्तसंयत को मायाप्रत्यया क्रिया कदाचित् प्रवचनमालिन्य के रक्षणार्थ (उस अवसर पर) लगती है, शेष समय में नहीं । उसी मिथ्यादर्शनशल्यविरत जीव को आरम्भिकीक्रिया लगती है, जो प्रमत्तसंयत हो, पारिग्रहिकीक्रिया देशविरत तक होती है, आगे नहीं । मायाप्रत्यया भी अनिवृत्तबादरसम्पराय तक होती है, आगे नहीं होती। अप्रत्याख्यानक्रिया भी अविरतसम्यग्दृष्टि तक होती है, आगे नहीं। इसलिए मिथ्यादर्शनशल्यविरत के लिए इन क्रियाओं के सम्बन्ध में विकल्पसूचक प्ररूपणा है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया मिथ्यादर्शनविरत में सर्वथा
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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