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________________ ५६८] [प्रज्ञापनासूत्र असम्भव है। आगे चौवीसदण्डक को लेकर विचार किया गया है। मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त चार क्रियाएँ होती हैं, मिथ्यादर्शनप्रत्यया नहीं होती। तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय में प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ नियम से होती है, अप्रत्याख्यानक्रिया विकल्प से होती है, जो देशविरत होता है, उसके नहीं होती, शेष के होती है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया नहीं होती। मनुष्य में सामान्य जीव के समान तथा व्यन्तरादि देवों में नारक के समान क्रियाएँ समझनी चाहिए।' आरम्भिकी आदि क्रियाओं का अल्पबहुत्व १६६३. एयासि णं भंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कमरे कयरेहितो अप्पा वा' ४? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ, अपच्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ, पारिग्गहियाओ विसेसाहियाओ, आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ। ॥पण्णवणाए भगवईए बावीसइमं किरियापयं समत्तं॥ ___ [१६६३ प्र.] भगवन् ! इन आरम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक की क्रियाओं में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? __ [उ.] गौतम ! सबसे कम मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रियाएँ हैं। (उनसे) अप्रत्याख्यानक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। (उनसे) पारिग्रहिकीक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। (उनसे) आरम्भिकीक्रियाएँ विशेषाधिक हैं; (और इन सबसे) मायाप्रत्ययाक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। विवेचन - क्रियाओं का अल्पबहुत्व : क्यों और कैसे ? - सबसे कम मिथ्यादर्शप्रत्ययाक्रियाएँ हैं, क्योंकि वे मिथ्यादृष्टियों के ही होती हैं। उनसे अप्रत्याख्यानक्रिया विशेषाधिक इसलिए हैं कि वे अविरत सम्यग्दृष्टियों एवं मिथ्यादृष्टियों के होती हैं, उनसे पारिग्रहिकीक्रियाएँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे देशविरतों तथा उनसे पूर्व श्रेणी के प्राणियों के भी होती हैं, आरम्भिकीक्रियाएँ उनसे विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रमत्तसंयतों तथा इनसे पूर्व के गुणस्थानों में होती हैं। उनसे भी मायापत्यया विशेषाधिक हैं, क्योंकि अन्य सब संसारी जीवों के उपरान्त अप्रमत्तसंयतों में भी पाई जाती हैं। ॥ प्रज्ञापना भगवती का बाईसवाँ क्रियापद सम्पूर्ण॥ १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५२ २. 'अप्पा' के आगे अंकित ४ का अंक शेष "बहू वा तुल्ला वा, विसेसाहिया वा" इन तीन पदों का सूचक है। ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५२
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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