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। प्रज्ञापनासूत्र
(क्रम से) ग्रहण करता है, जो आसन्न (निकट) हो उसे ग्रहण करता है तथा (८) छह ही दिशाओं में से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (९) जीव अमुक समय तक सतत बोलता रहे तो उसे निरन्तर भाषाद्रव्य ग्रहण करना पड़ता है। (१०) यदि बोलना सतत चालू न रखे तो सान्तर ग्रहण करता है। (११) भाषा लोक के अन्त तक जाती है। इसलिए भाषारूप में गृहीत पुद्गलों का निर्गमन दो प्रकार से होता है - (१) जिस प्रमाण में वे ग्रहण किये हों, उन सब पुद्गलों के पिण्ड का उसी रूप में (ज्योंका-त्यों) निर्गमन होता है, अर्थात् वक्ता भाषावर्गणा के पुद्गलों के पिण्ड को अखडरूप में ही बाहर निकालता है, वह पिण्ड अमुक योजन जाने के बाद ध्वस्त हो जाता है, (उसका भाषारूप परिणमन समाप्त हो जाता है) । (२) वक्ता यदि गृहीत पुद्गलों को भेद (विभाग) करके निकालता है तो वे पिण्ड सूक्ष्म हो जाते है, शीघ्र ध्वस्त नहीं होते, प्रस्तुत संपर्क में आने वाले अन्य पुद्गलों को वासित (भाषारुप में परिणत) कर देते हैं । इस कारण अनन्तगुणे बढ़ते-बढ़ते वे लोक के अन्त का स्पर्श करते हैं। भाषा पुद्गलों का ऐसा भेदन खण्ड, प्रतर, चूर्णिका, अनुतटिका और उत्करिका, यों पांच प्रकार से होता है, यह दृष्टान्त तथा अल्पबहुत्व के साथ बताया है।'
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१. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १
(ग) विशेषा. गा. ३७८
(ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, भाषापद की प्रस्तावना ८४ से ८८ तक (घ) प्रज्ञापना. म. वृ. पत्र २६५ () आवश्यक नियुक्ति गा.७