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________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [४७ नवजात अबोध शिशुओं या अपरिपक्कावस्था में उष्ट्रादि पशुओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा क्या सत्य है? तत्पश्चात् पुनः पुरुषवाचक एकवचन-बहुवचन, स्त्रीवाचक एकवचन बहुवचन, नपुंसकवाचक एकवचन-बहुवचन शब्दों के प्रयोग वाली भाषा प्रज्ञापनी (सत्या) है या मृषा ? तथा सोलह प्रकार के वचन, भाषा के चार प्रकार तथा इन्हें उपयोगपूर्वक बोलने वालों तथा उपयोगरहित बोलने वाले जीवों में से आराधक-विराधक कौन-कौन हैं ? एवं सत्यभाषक, असत्यभाषक, मिश्रभाषक और व्यवहारभाषक, इन चारों में से कौन, किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? इन सब पर विशद चर्चा की गई भाषा के योग्य अर्थात् भाषा-वर्गणा के द्रव्य (पुद्गल) अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक होते हैं तथा वह स्कन्ध भी क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यातप्रदेश में स्थित हो तभी भाषायोग्य होता है, अन्यथा नहीं। काल की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति वाले होते हैं, अर्थात् उन पुद्गलों की भाषारूप में परिणति एक समय तक भी रहती है और अधिक से अधिक असंख्यात समयों तक भी रहती है। भाषा के लिए ग्रहण किये गए पुद्गलों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के जो प्रकार हैं, वे प्रत्येक भाषापुद्गलों में एकसरीखे नहीं होते, उनमें पुद्गलों के सभी प्रकारों का समावेश हो जाता है। अर्थात् पुद्गल का रस, गन्धादि रूप में कोई भी परिणाम भाषायोग्यपुदगलों में न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ, स्पर्शो में विरोधी स्पर्शों में से एक ही स्पर्श होता है, इसलिए प्रत्येक भाषापुद्गल में दो से लेकर चार स्पर्शों तक के पुद्गल होते हैं। ग्रहण किये गए भाषा के पुद्गल भाषा के रूप में परिणत होकर बाहर निकलते हैं, इसमें सिर्फ दो समय जितना काल व्यतीत होता है क्योंकि प्रथम समय में ग्रहण और द्वितीय समय में उसका निसर्ग होता है। इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भाषा-द्रव्यों के अनेक विकल्पों की सांगोपांग चर्चा है। वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादिविशिष्ट जिन भाषाद्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित होते हैं या अस्थित ? यदि स्थित होते हैं तो आत्मस्पृष्ट होते हैं या नहीं? इसका तात्पर्य यह है कि पुद्गल तो समग्र लोकाकाश में भरे है, परन्तु आत्मा तो शरीरप्रमाण ही है। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि जीव चाहे जहाँ से भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है या आत्मा के साथ स्पर्श में आए हुए पुद्गलों को ही ग्रहण करता है ? इसके साथ ही अन्य समाधान भी किये गये हैं - (१) जीव आत्मस्पृष्ट भाषापुद्गलों का ही ग्रहण करता है। (२) आत्मा के प्रदेशों का अवगाहन आकाश के जितने प्रदेशों में है, उन्हीं प्रदेशों में रहे हुए भाषापुद्गलों का ग्रहण होता है। (३) उस-उस आत्मप्रदेश से जो भाषापुद्गल निरन्तर हों, अर्थात् आत्मा के उस-उस प्रदेश में अव्यवहित रूप से जो भाषापुद्गल होते हैं, उनका ग्रहण होता है। (४) चाहे वे पदगल छोटे स्कन्ध के रूप में हों या बाद हण होता है। (५) ऐसे ग्रहण किये जाने वाले भाषा द्रव्य ऊर्ध्व, अध: या तिर्यग् दिशा में स्थित होते हैं। (६) इन भाषाद्रव्यों का जीव आदि में, मध्य में और अन्त में भी ग्रहण करता है। (७) तथा उन्हें वह आनुपूर्वी
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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