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एगूणवीसइमं सम्मत्तपयं
उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद
प्राथमिक
प्रज्ञापनासूत्र का यह उन्नीसवाँ 'सम्यक्त्वपद' पद है।
मोक्षमार्ग और संसारमार्ग, ये दो मार्ग हैं, जीव की उन्नति और अवनति के लिए। जब जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो वह मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जब तक वह मिथ्यादृष्टि रहता है, तब तक उसकी प्रवृत्ति संसारमार्ग की ओर ही होती है। उसकी व्रताचरण, तपश्चर्या, नियम, त्याग-प्रत्याख्यान अदि जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ होती हैं वे अशुद्ध होती हैं, उसका पराक्रम अशुद्ध होता है, उससे संसारवृद्धि ही होती है। कर्मक्षय करके मोक्ष उपलब्धि वह नहीं कर सकता। इसी आशय से शास्त्रकार प्रस्तुत पद में तीनों दृष्टियों की चर्चा करते हैं ।"
जिनेन्द्र-प्र - प्रज्ञप्त जीवादि समग्र तत्त्वों के विषय में जिसकी दृष्टि अविपरीत- सम्यक् हो, वह सम्यग्दृष्टि, जिनप्रज्ञप्त तत्त्वों के विषय में जिसे जरा भी विप्रतिपत्ति (अन्यथाभाव या अश्रद्धा) हो, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है तथा जिसे उस विषय में सम्यक् श्रद्धा भी न हो, और विप्रतिपत्ति भी न हो, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है। जैसे चावल आदि के विषय में अनजान मनुष्य को उनमें रुचि या अरुचि, दोनों में से एक भी नहीं होती, वैसे ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि को जिन - प्रज्ञप्त तत्त्वों (पदार्थों) के विषय में रुचि भी नहीं होती, अरुचि भी नहीं होती। इस पद में जीवसामान्य, सिद्धजीव और चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि की विचारणा की गई है।
इसमें बताया गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि केवल पंचेन्द्रिय ही होते हैं। एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। सिद्ध जीव एकान्त सम्यग्दृष्टि होते हैं। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते । षट्खण्डागम में संज्ञी और असंज्ञी, ऐसे दो भेदों में पंचेन्द्रिय को विभक्त करके असंज्ञीपंचेन्द्रिय को मिथ्यादृष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते हैं । षट्खण्डागम में बताया गया है कि जीव किन-किन कारणों से सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तथा अन्तिम समय में सम्यक्त्व की मनःस्थिति कैसी होती है ? ++
(ख) असुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफला होइ सव्वसो । - सूत्र कृ.
(क) नादंसणिस्स नाणं०
प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. पत्रांक ३८८
(क) पण्णवणासुतं भा १, पृ. ३१८
(ग)
-उत्तरा. अ. गा.
(ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, प्रस्तावना पृ. १०१
षट्खण्डागम. पु. १, पृ. २५८, पुस्तक ६, पृ. ४१८-४३७