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अठारहवाँ कायस्थितिपद]
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बाईसवाँ चरमद्वार
१३९७. चरिमे णं० पुच्छा। गोयमा ! अणादीए सपज्जवसिए । [१३९७ प्र.] भगवन् ! चरमजीव कितने काल तक चरमपर्याय वाला रहता है ? [१३९७ उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित होता है।
१३९८. अचरिमे दुविहे पण्णत्ते तं जहा- अणदीए वा अपजवसिए १ सादीए वा अपजवसिए २।दारं २२॥
॥पण्णवणाए भगवतीए अट्ठारसमं कयट्ठिइपयं समत्तं ॥ [१३९८ प्र.] भगवन् ! अचरमजीव कितने काल तक अचरमपर्याय-युक्त रहता है ?
[१३९८ उ.] गौतम अचरम दो प्रकर का कहा गया है, वह इस प्रकार है - (१) अनादि-अपर्यवसित और (२) सादि-अपर्यवसित ।
विवेचन- बाईसवाँ चरम-अचरम द्वार- प्रस्तुत दो सूत्रों (१३९७-१३९८) में चरमजीव के स्वस्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमन प्ररूपित किया गया है।
चरम-अचरम की परिभाषा - जिसका भव चरम अर्थात् अन्तिम होगा, वह 'चरम' कहलाता है। चरम का सरल अर्थ है- भव्यजीव। जो चरम से भिन्न हो, वह अचरम' है। अभव्य जीव अचरम कहलाता है, क्योंकि उसका कदापि चरम भव नहीं होगा। वह सदाकाल जन्ममरण करता ही रहेगा। एक दृष्टि से सिद्ध जीव भी अचरम हैं, क्योंकि उनमें भी चरमत्व नहीं होता। इसी कारण अचरम के दो प्रकार बताये गए हैं- (१) अनादि-अनन्त और (२) सादि-अनन्त । इनमें से अनादि-अनन्त (अपर्यवसित) जीव अभव्य हैं और सादिपपर्यवसित जीव सिद्ध हैं।
॥ प्रज्ञापनासूत्र : अठारहवाँ कयस्थितिपद समाप्त ॥
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५