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। प्रज्ञापनासूत्र
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[प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या स्वाद में ऐसी होती है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शुक्ललेश्या आस्वाद में इनसे भी इष्टतर, अधिक कान्त (कमनीय), अधिक प्रिय एवं अत्यधिक मनोज्ञ- मनाम कही गई है।
विवेचन - तृतीय रसाधिकार - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. १२३३ से १२३८ तक) में छहों लेश्याओं के रसों का पृथक्-पृथक् विविध वस्तुओं के रसों की उपमा देकर निरूपणा किया गया है।' चतुर्थ गन्धाधिकार से नवम गति-अधिकार तक का निरूपण
१२३९. कति णं भंते ! लेस्साओ दुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ?
गोयमा ! तओ लेस्साओ दुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - किण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा।
[१२३९ प्र.] भगवन् ! दुर्गन्ध वाली कितनी लेश्याएँ कही हैं ?
[१२३९ उ.] गौतम ! तीन लेश्याएँ दुर्गन्ध वाली कही हैं, वे इस प्रकार - कृष्णलेश्या नीललेश्या और कापोतलेश्या।
१२४०. कति णं भंते ! लेस्साओ सुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तओ लेस्साओ सुब्भिगंधाओ पण्णत्ताओ ।तं जहा- तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। [१२४० प्र.] भगवन् ! कितनी लेश्याएँ सुगन्ध वाली कही हैं ?
[१२४० उ.] गौतम ! तीन लेश्याएँ सुगन्ध वाली कही हैं, वे इस प्रकार - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या।
१२४१. एवं तओ अविसुद्धाओ तओ विसुद्धाओ, तओ अप्पसत्थाओ तओ पसत्थाओ, तओ संकिलिट्ठाओ तओ असंकिलिट्ठाओ, तओ सीयलुक्खाओ तओ निधुण्हाओ, तओ दुग्गइंगामिणीओ तओ सुगइगामिणीओ।
[१२४१] इसी प्रकार (पूर्ववत् क्रमशः) तीन (लेश्याएँ) अविशुद्ध और तीन विशुद्ध हैं, तीन अप्रशस्त हैं और तीन प्रशस्त हैं, तीन संक्लिष्ट हैं और तीन असंक्लिष्ट हैं, तीन शीत और रूक्ष (स्पर्श वाली) हैं, और तीन उष्ण और स्निग्ध (स्पर्श वाली) हैं, (तथैव) तीन दुर्गतिगामिनी (दुर्गति में ले जाने वाली) हैं और तीन सुगतिगामिनी (सुगति में ले जाने वाली) हैं।
विवेचन - चौथे गन्धाधिकार से नौवें गति-अधिकार तक की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू.
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प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६५-३६६