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________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक] [३३७ १२३९ से १२४१ तक) में तीन-तीन दुर्गन्धयुक्त-सुगन्धयुक्त लेश्याओं का, अविशुद्ध-विशुद्ध का, अप्रशस्तप्रशस्त का, संक्लिष्ट-असंक्लिष्ट का, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध स्पर्शयुक्त का, दुर्गतिगामिनी-सुगतिगामिनी का निरूपण किया गया है। ४. गन्धद्वार- प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ मृतमहिष आदि के कलेवरां से भी अनन्तगुणी दुर्गन्ध वाली हैं तथा अन्त की तीन लेश्याएँ पीसे जाते हुए सुगन्धित वास एवं सुगन्धित पुष्पों से भी अनन्तगुणी उत्कृष्ट सुगन्ध वाली होती हैं। ५.अविशुद्ध-विशुद्धद्वार - प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से अविशुद्ध और अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से विशुद्ध होती हैं। ६. अप्रशस्त-प्रशस्तद्वार - आदि की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त होती हैं, क्योंकि वे अप्रशस्त द्रव्यरूप होने के कारण अप्रशस्त अध्यवसाय की तथा अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त होती हैं, क्योंकि वे प्रशस्त द्रव्यरूप होने से प्रशस्त अध्यवसाय की निमित्त होती हैं। ७.संक्लिष्टाऽसंक्लिष्टद्वार - प्रथम की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट होती हैं, क्योंकि वे संक्लेशमय आर्त्तध्यानरौद्रध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती तथा अन्तिम तीन लेश्याएँ असंक्लिष्ट हैं, क्योंकि वे धर्मध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती हैं। ८. स्पर्श-प्ररूपणाधिकार - प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ शीत और रूक्ष स्पर्श वाली हैं, इनके शीत और रूक्ष स्पर्श चित्त में अस्वस्थता उत्पन्न करने के निमित्त हैं, जबकि अन्त की तीन लेश्याएँ उष्ण और स्निग्ध स्पर्श वाली हैं । यद्यपि लेश्याद्रव्यों के कर्कश आदि स्पर्श आगे कहे गए हैं, परन्तु यहाँ उन्हीं स्पर्शों का कथन किया गया है, जो चित्त में अस्वस्थता-स्वस्थता पैदा करने में निमित बनते हैं। ९. दुर्गति-सुगतिद्वार - प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट अध्यवसाय की कारण होने से दुर्गति में ले जाने वाली हैं, जबकि अन्तिम तीन प्रशस्त अध्यवसाय की कारण होने से सुगति में ले जाने वाली हैं। दशम परिणामाधिकार १२४२. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविधं परिणामं परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसतिविहं वा एक्कासीतिविहं वा बेतेयालसतविहं वा बहुं १. तुलना - जह गोमडस्स गंधो नागमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो उ अणंतगुणो लेस्साणं अपसत्थाणं ॥१॥ जहा सुरभिकुसुमगंधो गंधवासाण पिस्समाणाण । एत्तो उ अणंतगुणो पसत्थलेस्साण तिण्हं पि ॥२॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६७ - उत्तराध्ययन
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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