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________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : तइओ उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा ११९९.[१]णेरइए णं भंते ! णेरइएसु उववज्जति ? अणेरइए णेरइएसु उववज्जति ? गोयमा ! णेरइए णेरइएसु उववज्जइ, णो अणेरइए णेरइएसु उववजति । [११९९-१ प्र.] भगवन् ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अथवा अनारक नारकों में उत्पन्न होता है ? । [११९९-१ उ.] गौतम ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अनारक नारकों में उत्पन्न नहीं होता। . [२] एवं जाव वेमाणियाणं । [११९९-२] इसी प्रकार (नारक के समान ही असुरकुमार आदि भवनपतियों से लेकर) यावत् वैमानिकों की उत्पत्तिसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए । विवेचन - चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा - प्रस्तुत चार सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के उत्पाद एवं उद्वर्तन के सम्बन्ध में ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई हैं । प्रश्रोत्तर का आशय - प्रस्तुत दो सूत्रों में दो प्रश्न हैं- १. प्रथम प्रश्न उत्पत्तिविषयक है। नैरयिक नैरयिकों में उत्पन्न होता है, अनैरयिक नहीं। इसका अर्थ यह है कि नारक ही नरकभव में उत्पन्न होता है, क्योंकि नारकभवोपग्राहक आयु ही भव का कारण है। अत: जब नरकायु का उदय होता है, तभी जीव को नरकभव की प्राप्ति होती है तथा जब मनुष्यायु का उदय होता है, तब मनुष्यभव प्राप्त होता है। इसलिए ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से नारकायु आदि के वेदन के प्रथम समय में ही नारक आदि संज्ञा का व्यवहार होने लगता है ।२. दूसरा प्रश्न उद्वर्तन विषयक है। उसका अर्थ है- नारक से भिन्न (अनारक) नारकभव से (नारकों से) उद्वर्तन करता है अर्थात् निकलता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक किसी जीव के नरकायु का उदय बना हुआ है, तब तक वह नारक कहलाता है और जब तक नरकायु का उदय नहीं रहता, तब वह अनारक (नारकभिन्न) कहलाने लगता है। अत: जब तक नरकायु का उदय है, तब तक कोई जीव नरक से नहीं निकल सकता। इसी कारण कहा गया है- नारक नरक से उद्वृत्त नहीं होता, बल्कि वही जीव नरक से उद्वर्तन करता है, जो अनारक हो, (जिसके नरकायु का उदय न रह गया हो) । निष्कर्ष यह है कि आगामी भव की आयु का
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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