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चौदहवाँ कषायपद]
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कषाय से ही कर्मों का आदान - तत्त्वार्थसूत्र में बताया है- 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते'-कषाययुक्त होकर जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है - ये चारों कषाय पुनर्भव के मूल का सिंचन करते हैं।' चौवीस दण्डकों में कषाय की प्ररूपणा
९५९. णेरइयाणं भंते ! कति कसाया पण्णत्ता ?
गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता । तं जहा - कोहकसाए जाव लोभकसाए । एवं जाव वेमाणियाणं ।
[९५९ प्र.] भगवान् ! नैरयिक जीवों में कितने कषाय होते हैं ?
[९५९ उ.] गौतम ! उनमें चार कषाय होते हैं । वे इस प्रकार हैं - क्रोघकषाय से (लेकर) लोभकषाय तक । इसी प्रकार वैमानिक तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में चारों कषाय पाए जाते हैं ।)
विवेचन - चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कषायों की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९५९) में नैरयिकों वे वैमानिकों तक समस्त संसारी जीवों में इन चारों कषायों का सद्भाव बताया है । कषायों के प्रतिष्ठान की प्ररूपणा
९६० [१] कतिपतिट्ठिए णं भंते ! कोहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! चउपतिट्ठिए कोहे पण्णत्ते । तं जहा-आयपतिट्ठिए १ परपतिट्ठिए २ तदुभयपतिट्ठिए ३ अप्पतिट्ठिए ४ ।
[९६०-१ प्र.] भगवन् ! क्रोध कितनों पर प्रतिष्ठित (आश्रित है ?) (अर्थात्-किस-किस आधार पर रहा हुआ है ?)
[९६०-१ उ.] गौतम ! क्रोध को चार (निमित्तों) पर प्रतिष्ठित (आधारित) कहा है । वह इस प्रकार-(१) आत्मप्रतिष्ठित, (२) परप्रतिष्ठित, (३) उभय-प्रतिष्ठित और (४)अप्रतिष्ठित ।
[२] एवं णेरइयादीणं जाव वेमाणियाणं दंडओ ।
[९६०-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों ) के विषय में दण्डक (आलापक कहना चाहिए ।)
[३] एवं माणेणं दंडओ, मायाए दंडओ, लोभेणं दंडओ ।
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१.
(क) तत्त्वार्थसूत्र अ. ९, सू. २ (ख) 'चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ।' - दशवैकालिकसूत्र अ.९