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________________ सत्तरसम लेस्सापयं सत्तरहवाँ लेश्यापद प्राथमिक • प्रज्ञापनासूत्र का यह सत्तरहवाँ 'लेश्यापद' है। 'लेश्या' आत्मा के साथ कर्मों को श्लिष्ट करने वाली है। जीव का यह एक परिणाम-विशेष है। इसलिए आध्यात्मिक विकास में अवरोधक होने से लेश्या पर सभी पहलुओं से विचार करना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से इस पद में छह उद्देशकों द्वारा लेश्या का सांगोपांग विचार किया गया है। लेश्या का मुश्य कारण मन-वचन-काया का योग है। योगनिमित्तक होने पर भी लेश्या योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्यरूप है। योगान्तर्गत द्रव्यों में कषायों को उत्तेजित करने का सामर्थ्य है। अत: जहाँ कषाय से अनुरंजित आत्मा का परिणाम हुआ, वहाँ लेश्या अशुभ, अशुभतर एवं अशुभतम बनती जाती है, जहाँ अध्यवसाय केवल योग के साथ होता है, वहाँ लेश्या प्रशस्त एवं शुभ होती जाती है।' प्रस्तुत पद के छह उद्देशकों में से प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य की समता-विषमता के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् सकारण विचार किया गया है। इसके पश्चात् कृष्णादि लेश्याविशिष्ट २४ दण्डकवर्ती जीवों के विषय में पूर्वोक्त आहारादि सप्त द्वारों की दृष्टि से विचारणा की गई है। . द्वितीय उद्देशक में लेश्या के ६ भेद बता कर नरकादि चार गतियों के जीवों में से छह लेश्याओं में से किसके कितनी लेश्याएँ होती हैं, इसकी चर्चा की गई है। साथ ही कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकीय जीवों के अल्पबहुत्व की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। अन्त में कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में कौन किससे अल्पर्द्धिक या महर्द्धिक है ? इसका विचार किया गया है। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२९-३३० (ख) 'लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते । योग-परिणामो लेश्या । जम्हा अयोगिकेवली अलेस्सो ।' - आवश्यक चूर्णि .. (ग) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ. २४७
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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