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________________ २६२] [प्रज्ञापनासूत्र (५) पुद्गलगति- पुद्गल की गति । (६) मण्डूकगति- मेंढक की तरह उछल-उछल कर चलना । (७) नौकागति- नौका द्वारा महानदी आदि में गमन करना ।(८) नयगति- नैगमादि नयों द्वारा स्वमत की पुष्टि करना अथवा सभी नयों द्वारा परस्पर.सापेक्ष होकर प्रमाण से अबाधित वस्तु को व्यवस्थापना करना । (९) छायागति- छाया का अनुसरण (अनुगमन) करके अथवा उसके सहारे से गमन करना । (१०) छायानुपातगति- छाया का अपने निमित्तभूत पुरुष का अनुपात-अनुसरण करके गति करना छायानुपातगति है, क्योंकि छाया पुरुष का अनुसरण करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुसरण नहीं करता । (११) लेश्यागति- तिर्यचों और मनुष्यों के कृष्णादि लेश्या कें द्रव्य नीलादि लेश्या के द्रव्यों को प्राप्त करके तद्प में परिणत होते हैं, वह लेश्यागति है।(१२) लेश्यानुपातगति- लेश्या के अनुपात अर्थात्- अनुसार गमन करना लेश्यानुपातगति है। जीव लेश्याद्रव्यों का अनुसरण करता हैं, लेश्याद्रव्य जीव का अनुसरण नहीं करता। जैसा कि मूलपाठ में कहा गया है- जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वह उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। (१३) उद्दिश्यप्रविभक्तगति-प्रविभक्त यानी प्रतिनियत आचार्यादि का उद्देश्य करके उनके पास से धर्मोपदेश सुनने या उनसे प्रश्न पूछने के लिए जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है। (१४) चतुःपुरुषप्रविभक्तगति- चार प्रकार के पुरुषों की चार प्रकार की प्रविभक्त-प्रतिनियत गति चतुःपुरुप्रविभक्तगति कहलाती है।(१५) वक्रगति- चार प्रकार से वक्र-टेढी-मेढी गति करना। वक्रगति के चार प्रकार ये हैं-घट्ठनता- खंजा (लंगड़ी) चाल (गति), स्तम्भनता- गर्दन में धमनी आदि नाड़ी का स्तम्भन होना अथवा आत्मा के अंगप्रदेशों का स्तब्ध हो जाना स्तम्भनता है, श्लेषणता- घुटनों आदि के साथ जांघों आदि का संयोग होना श्लेषणता है, प्रपतन- ऊपर से गिरना । (१६) पंकगति- पंक अर्थात् कीचड़. में गति करना। उपलक्षण से पंक शब्द से 'जल' का भी ग्रहण करना चाहिए । अत: पंक अथवा जल में अपने शरीर को किसी के साथ बांध कर उसके बल से चलना पंकगति है। (१७) बन्धनविमोचनगति- आम आदि फलों का अपने वृन्त (बंधन) से छूट कर स्वभावतः नीचे गिरना, बन्धनविमोचनगति है। सपक्ष सप्रतिदिक्- पक्ष का अर्थ है- पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण रूप पार्श्व । प्रतिदिक् का अर्थ हैविदिशाएँ, इनके साथ। ॥ प्रज्ञापनासूत्र : सोलहवाँ प्रयोगपद समाप्त ॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२८-३२९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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