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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक]
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[प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [२] एवं मणूसवजं जाव गेवेजगदेवत्ते ।।
[१०५५-२] मनुष्य को छोड़ कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व तक के रूप में भी इसी प्रकार (इनकी अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता कहनी चाहिए ।)
[३] मणूसत्ते अतीता अणंता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा संखेजा। [१०५५-३] (इनकी) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, पुरस्कृत संख्यात
[४] विजय-वेजयंत-जयंतापराजियदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ? संखेज्जा। केवतिया बद्धेल्लगा? नत्थि । केवतिया पुरेक्खडा? णत्थि । [१०५५-४ प्र.] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में इनकी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ
कितनी हैं?
[१०५५-४ उ.] (वे) संख्यात हैं । [प्र.] (इनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं । [प्र.] उनकी पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [५] सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ?