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________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [१६१ (रचनाविशेष) को निर्वृति कहते हैं। वह निर्वृति भी दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य निर्वृति पर्पटिका आदि है। वह विविध - विचित्र प्रकार की होती है। अतएव उसको किसी एक नियत रूप में नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ - मनुष्य के श्रोत्र (कान) दोनों नेत्रों के दोनों पार्श्व (बगल) में होते हैं। उसकी भौहें ऊपर के श्रवणबन्ध की अपेक्षा से सम होती है, किन्तु घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीक्ष्ण होते हैं। इस जातिभेद से इन्द्रियों की, बाह्य निर्वृति (रचना या आकृति) नाना प्रकार की होती है, किन्तु इन्द्रियों की आभ्यन्तर - निर्वृति सभी जीवों की समान होती है। यहाँ संस्थानादिविषयक प्ररूपणा इसी आभ्यन्तरनिर्वृति को लेकर की गई है। केवल स्पर्शेन्द्रिय - निर्वृत्ति के बाह्य और आभ्यन्तर भेद नहीं करने चाहिए। वृत्तिकार ने स्पर्शेन्द्रिय को बाह्यसंस्थानविषयक बताकर उसकी व्याख्या इस प्रकार की है - बाह्यनिर्वृत्तिखड्ग के समान है और तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गलसमूहरूप आभ्यन्तरनिर्वृत्ति है। द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पृथुत्वद्वार ९७५.[१] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजतिभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते । [९७५-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का बाहल्य (जाडाई-मोटाई) कितना कहा गया है ? [९७५-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय का) बाहल्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा गया है । [२] एवं जाव फासिंदिए। [९७५-२] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय के बाहल्य के विषय में समझना चाहिए। ९७६.[१] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं पोहत्तेणं पण्णत्ते । गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजति भागं पोहत्तेणं पण्णत्ते । [९७६-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितनी पृथु = विशाल (विस्तारवाली) कही गई है ? [९७६-१ उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पृथु - विशाल कही है। [२] एवं चक्खिदिए वि घाणिंदिए वि। [९७६-२] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय (की पृथुता - विशालता) के विषय में (समझना चाहिए)। [३] जिभिदिए णं पुच्छा । गोयमा ! अंगुलपुहत्तं पोहत्तेणं पण्णत्ते ।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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