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[प्रज्ञापनासूत्रं
निरिन्द्रिय कहते हैं।
सेन्द्रिय जीव की सेन्द्रियपर्याय में अवस्थिति - सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गए हैं- अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । जो सेन्द्रिय है, वह नियमतः संसारी होता है और संसार अनादि है। जो सिद्ध हो जाएगा, वह अनादि-सान्त है। क्योंकि मुक्ति-अवस्था में सेन्द्रियत्व पर्याय का अभाव हो जाएगा। जो कदापि सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त है। क्योकि उसके सेन्द्रियत्वपर्याय का भी अन्त नहीं होगा।
पन्न नहीं होगा। अनिन्द्रिय-पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषण से रहित हैं। सेन्द्रिय जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के हैं। जो अपर्याप्तक हैं, वे लब्धि और करण की अपेक्षा से समझने चाहिये। दोनों प्रकार से उनकी पर्याय जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है तथा पर्याप्त यहाँ लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए। वह विग्रहगति में भी संभव है, भले ही वह करण से अपर्याप्त हो। अतएव वह उत्कृष्टत: सौ सागरोपम पृथक्त्व अर्थात् दो सौ से नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल में सिद्ध हो जाता है। अन्यथा करणपर्याप्त का काल तो अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण ही है। अत: पूर्वोक्त कथन सुसंगत नहीं होगा। इसलिए यहाँ और आगे भी लब्धि की अपेक्षा से ही पर्याप्तत्व समझना चाहिए।
वनस्पतिकाल का प्रमाण - कालतः अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणो काल; क्षेत्रतः अनन्तलोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त और वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग समझना चाहिए। अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्त यहाँ समझना चाहिए।
संख्यातकाल का तात्पर्य - द्वीन्द्रिय की अवस्थिति संख्यातकाल की बताई है, उसका अर्थ संख्यात. वर्ष, यानी संख्यात हजार वर्ष का काल।
. पंचेन्द्रिय का काल - कुछ अधिक हजार सागरोपम तक पंचेन्द्रिय जीव लगातार पंचेन्द्रिय बना रहता है। यह काल नारक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति इन चारों में भ्रमण करने से होता है।
एकेन्द्रिय पर्याप्तजीव की लगातार अवस्थिति - एकेन्द्रिय पर्याप्त उत्कृष्ट हजार वर्ष तक एकेन्द्रिय पर्याप्त रूप से बना रहता है। इसका कारण यह है पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट भवस्थिति २२ हजार वर्ष की, अप्कायिक की ७ हजार वर्ष की, वायुकायिक की ३ हजार वर्ष की और वनस्पतिकायिक की १० हजार वर्ष की भवस्थिति है। ये सब मिलकर संख्यात हजार वर्ष होते हैं।
द्वीन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति - द्वीन्द्रिय पर्याय जीव उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक द्वीन्द्रिय पर्याप्त बना रहता है। द्वीन्द्रिय जीव की अवस्थिति का काल उत्कृष्ट बारह वर्ष का है, मगर सभी भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो हो नहीं सकती। अतएव लगातार कतिपय पर्याप्त भवों को मिलाने पर भी संख्यात वर्ष ही हो सकते हैं, सैकड़ों या हजारों वर्ष नहीं।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७७-३७८ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७७