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सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक]
[३१३ नरकायु का वेदन करता है। अतएव कहा है - कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न नहीं होता। तत्पश्चात् वहाँ कृष्णलेश्या वाला ही बना रहता है, उसकी लेश्या बदलती नहीं है; क्योंकि देवों और नारकों की लेश्या भव का क्षय होने तक बदलती नहीं है। इसी प्रकार नीललेश्या वाला या कापोतलेश्या वाला नारक उसी लेश्यावाले नारकों में उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वालों में नहीं और न अन्य लेश्या वाला नीललेश्या या कापोतलेश्या वालों में उत्पन्न होता है। नारकों की उद्वर्त्तना के सम्बन्ध में भी यही नियम है कि नीललेश्या वालों में उत्पन्न नारक नीललेश्यायुक्त होकर ही वहाँ से उवृत्त होता है, अन्य लेश्यायुक्त होकर नहीं ।
पृथ्वीकायिक आदि की उद्वर्तना के सम्बन्ध में - पृथ्वीकायिक आदि तिर्यञ्चों और मनुष्यों की उद्वर्त्तना के विषय में यह नियम एकान्तिक नहीं है कि जिस लेश्या वालों में वह उत्पन्न हो, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करे। वह कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर उदवर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है तथा कदाचित् वह जिस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है। इसका कारण यह है कि तिर्यञ्चों और मनुष्यों का लेश्या-परिणाम अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थायी रहता है, उसके पश्चात् बदल जाता है। अतएव जो पृथ्वीकायिकादि जिस लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है। तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि जब भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान कल्पों के देव तेजोलेश्या से युक्त होकर अपने भव का त्याग करके पृथ्वीकायिकों में उप्तन्न होते हैं, तब कुछ काल तक अपर्याप्त अवस्था में उनमें तेजोलेश्या भी पायी जाती है, किन्तु उसके पश्चात् तेजोलेश्या नहीं रहती, क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव अपने भवस्वभाव से ही तेजोलेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। इस अभिप्राय से कहा है कि तेजोलेश्या से युक्त होकर पृथ्वीकायिक उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त नहीं होता।
पृथ्वीकायिकों की तरह अप्कायिकादि की चार वक्तव्यताएँ - जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों की कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजोलेश्या सम्बन्धी चार वक्तव्यताएँ कही हैं, उसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की भी चार वक्तव्यताएँ कहनी चाहिए, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में उनमें भी तेजोलेश्या पाई जाती है।
तेजस्कायिकों, वायुकायिकों तथा विकलेन्द्रियों में तीन वक्तव्यताएँ - तेजस्कायिकों, वायुकायिकों और विकलेन्द्रियों में तेजोलेश्या नहीं होती, क्योंकि उसका होना संभव नहीं है।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५३ २. 'अंतोमुहुत्तंमि गए, सेसए आउं (चेव) ।
लेसाहिं परिणयाहिं जीवा वच्चंति परलोयं ॥' ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पंत्रांक ३५४ ४. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५४