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ग्यारहवाँ भाषापद]
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(२) मैं (युक्ति से भी) ऐसा चिन्तन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। इस प्रकार श्री गौतमस्वामी, भगवान् के समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट करके उसकी यथार्थता का निर्णय कराने हेतु पुनः इन दो प्रश्नों को प्रस्तुत करते हैं - (३) भगवन् ! क्या मैं ऐसा मानूं कि भाषा अवधारिणी है ? (४) भगवन् ! क्या मै (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है? अर्थात् क्या मेरा यह मानना और सोचना निर्दोष है ? इसी मन्तव्य पर भगवान् से सत्यता की पक्की मुहरछाप लगवाने हेतु श्री गौतमस्वामी पुनः इन्हीं दो प्रश्रों को दूसरे रूप में प्रस्तुत करते हैं(५-६) जैसे मैं पहले मानता और विचारता था कि भाषा अवधारिणी है, अब भी मैं उसी प्रकार मानता और विचारता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। तात्पर्य यह है कि मेरे इस समय के मनन और चिन्तन में तथा पूर्वकालिक मनन और चिन्तन में कोई अन्तर नहीं है। भगवान् ! क्या मेरा यह मनन और चिन्तन निर्दोष एवं युक्तियुक्त है ?
भगवान् का जो उत्तर है, उसमें मण्णामि चिंतेमि' इत्यादि उत्तमपुरुषवाचक कियापद प्राकृतभाषा की शैली तथा आर्षप्रयोग होने के कारण मध्यमपुरुष के अर्थ में प्रयुक्त समझना चाहिए। इस दृष्टि से भगवान् के द्वारा इन्हीं पूर्वोक्त छह वाक्यों में दोहराये हुए उत्तर का अर्थ इस प्रकार होता है - 'हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मननचिन्तन सत्य है।) तुम मानते हो तथा युक्ति पूर्वक सोचते हो कि भाषा अवधारिणी है, यह मैं भी अपने केवलज्ञान से जानता हूँ.। इसके पश्चात् भी तुम यह मानो कि भाषा अवधारिणी है, तुम यह निःसन्देह होकर चिंतन करो कि भाषा अवधारिणी है। अतएव (तुमने पहले जैसा माना और सोचा था) उसी तरह मानो और सोचो कि भाषा अवधारिणी है, इसमें जरा भी शंका मत करो।'
सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा की व्याख्या - सत्या - सत्पुरुषों - मुनियों अथवा शिष्ट जनों के लिए जो हितकारिणी हो, अर्थात् इहलोक एवं परलोक की आराधना करने में सहायक होने से मुक्ति प्राप्त कराने वाली हो, वह सत्या भाषा है: क्योंकि भगवदाज्ञा के सम्यक् आराधक होने से सन्त-मुनिगण ही सत्यपुरुष हैं, उनके लिए यह हितकारिणी है। अथवा सन्त अर्थात् - मूलगुण और उत्तरगुण, जो कि जगत् में मुक्तिपद को प्राप्त कराने के कारण होने से परमशोभन हैं, उनके लिए जो हितकारिणी हो अथवा सत् यानी विद्यमान भगवदुपदिष्ट जीवादि पदार्थो की यथावस्थित प्ररूपणा करने में जो उपयुक्त यानी विद्यमान अनुकूल हो या साधिका हो वह सत्या है। मृषा - सत्यभाषा से विपरीत स्वरूप वाली हो, वह मृषा है। सत्यामृषा - जिसमें सत्य और असत्य दोनों मिश्रित हों, अर्थात् जिसमें कुछ अंश सत्य हो, और कुछ अंश असत्य हो - वह सत्यामृषा या मिश्र भाषा है। असत्यामृषा - जो भाषा इन तीनों प्रकार की भाषाओं में समाविष्ट न हो सके, अर्थात् जिसे सत्य, असत्य या उभयरूप न कहा जा सके, अथवा जिसमें इन तीनों में से किसी भी भाषा का लक्षण घटित न हो सके, वह असत्यामृषा है। इस भाषा का विषय - आमन्त्रण करना (बुलाना या सम्बोधित करना) अथवा आज्ञा देना आदि है। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २४७ २. 'सच्चा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्था वा ।
तव्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा ॥
-प्रज्ञापना. म. व.,पृ. २४८