________________
अठारहवाँ कायस्थितिपद ]
( अपर्याप्तक की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए ।)
१३०४. पज्जत्तयाण वि एवं चेव ।
[१३०४] (इन पूर्वोक्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के) पर्याप्तकों (के विषय में भी ) ऐसा ही (समझना चाहिए।)
[ ३६९
१३०५. बादरे णं भंते ! बादरे त्ति कालओ केवचिरं होइ ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उसप्पिणि ओसप्पिणीओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं ।
[१३०५ प्र.] भगवन् ! वादर जीव, बादर जीव के रूप में (लगातार) कितने काल तक रहता है ?
[१३०५ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक, क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण (बादर जीव के रूप में लगातार रहता है ।)
१३०६. बादरपुढविक्काइए णं भंते ! बादरपुढविक्काइए त्ति पुच्छा ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ ।
[१३०६ प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक बादर पृथ्वीकायिक रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ?
[१३०६ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम तक (बादर पृथ्वीकायिक रूप में लगातार रहता है ।)
१३०७. एवं बादरआउक्काइए वि जाव बादरवाउक्काइए वि ।
[१३०६] इसी प्रकार बादर अप्कायिक एवं बादर वायुकायिक ( के विषय में भी समझना चाहिए ।)
१३०८. बादरवणस्सइकाइए णं भंते ! बादरवणस्सइकाइए त्ति पुच्छा ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं ।
[१३०८ प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में कितने काल तक रहता
!
है ?
[१३०८ उ.] गौतम ! ( वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक, (अर्थात्- ) कालतः - असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणियों तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग - प्रमाण (बादर वनस्पतिकायिक के रूप में रहता है।)