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तेरहवां परिणामपद]
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[९४१-१] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियजीवों (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की वृद्धि कर लेनी चाहिए।
९४२. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया गतिपरिणामेणं तिरियगतीया।सेसंजहाणेरइयाणं (सु. ९३८)। णवरं लेस्सापरिणामेणं जाव सुक्कलेस्सा वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरित्ती, अचरित्ती विचरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि णपुंसगवेयगा वि।।
[९४२] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं। शेष (सू. ९३८ में) जैसे नैरयिकों का (परिणामसम्बन्धी कथन) है; (वैसे ही समझना चाहिए।) विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से (वे कृष्णलेश्या से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या वाले भी होते है; चारित्रपरिणाम से वे (पूर्ण) चारित्री नहीं होते, अचारित्री भी होते हैं और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी; वेद-परिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होतो हैं, पुरुषवेदक भी और नपुंसकवेदक भी होते हैं।
एकेन्द्रिय से तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा - प्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. ९४० में एकेन्द्रियों के सू. ९४१ में विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों) तथा सू. ९४२ में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर नैरयिकजीवों के समान अतिदेशपूर्वक की गई है।
इनसे नैरयिकों के परिणामसम्बन्धी निरूपण में अन्तर - गतिपरिणाम से नैरयिक नरकगतिक होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक तिर्यञ्चगतिक होते हैं; इन्द्रियपरिणाम से नैरयिक पंचेन्द्रिय होते हैं, जबकि पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय सिर्फ एक स्पर्शेन्द्रिय वाले, द्वीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय एंव रसनेन्द्रिय, इन दो इन्द्रियों वाले, त्रीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, एवं घ्राणेन्द्रिय, इन तीन इन्द्रियों वाले तथा चतुरिन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय एवं चक्षुरिन्द्रिय, इन चार इन्द्रियों वाले एवं तिर्यचपंचेन्द्रिय पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) वाले होते हैं। लेश्यापरिणाम से- नारकों में आदि की तीन लेश्याएँ होती हैं, जबकि (पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिक) एकेन्द्रियों में चौथी तेजोलेश्या भी होती हैं; क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक तक के देव भी इनमें उत्पन्न हो सकते हैं। तेजस्कायिक-वायुकायिकों में नारकों की तरह प्रारम्भ की तीन लेश्याएं ही होती हैं। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में शुक्ललेश्या तक छहों लेश्याएँ सम्भव हैं । योगपरिणाम से नारकों में तीनों योग पाए जाते हैं, जबकि पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय सिर्फ काययोगी होते हैं, विकलेन्द्रिय वचनयोगी और काययोगी तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तीनों योगों वाले होते हैं। ज्ञानपरिणाम से नारक तीन ज्ञान वाले होते हैं, जबकि एकेन्द्रियों में ज्ञानपरिणाम नहीं होता, क्योंकि पृथ्वीकायिकादि पंचों में सास्वादनसम्यक्त्व का भी आगमों में निषेध है, इसलिए इनमें ज्ञान का निषेध किया गया है। विकलेन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी भी होते हैं, क्योंकि कोई-कोई द्वीन्द्रिय जीव करणापर्याप्त-अवस्था में सास्वादनसम्यक्त्वी भी पाए जाते हैं, इसलिए उन्हें ज्ञानद्वयपरिणत कहा है। पंचेन्द्रियतिर्यचों को नारकों की तरह तीन ज्ञान होते हैं। अज्ञानपरिणाम से नारक तीनों अज्ञानों से परिणत होते हैं, जबकि सम्यक्त्व के अभाव