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________________ १४० ] । प्रज्ञापनासूत्र में एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रिय जीवों में मतिअज्ञान और श्रुत अज्ञान ये दो अज्ञान होते हैं, विभंगज्ञान नहीं; तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में तीनों अज्ञान होते हैं। दर्शनपरिणाम से नारकजीव तीनों दृष्टियों से युक्त होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय सिर्फ मिथ्यादृष्टि, विकलेन्द्रिय सास्वादनसम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यगदृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा तिर्यचपंचेन्द्रिय तीनों दृष्टियों वाले होते हैं । वेदपरिणाम की दृष्टि से नारकों की तरह एकेन्द्रिय तथा विकेलेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदी ही होते हैं, जबकि तिर्यचपंचेन्द्रिय तीनों वेद (स्त्री-पुरूष-नपुंसकवेद) वाले होते हैं। चारित्रपरिणाम से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में तो नारकों की तरह चारित्रपरिणाम सर्वथा असम्भव है, तिर्यचपंचेन्द्रियों में देशत: चारित्रपरिणाम सम्भव है। ये परिणाम समुच्चय नारकों आदि की अपेक्षा से कहे गए हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। यही नारकों से इनमें परिणामसम्बन्धी अन्तर है। मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा ९४३. मणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचेंदिया अणिंदिया वि, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि जाव अकसाइ वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि जाव अलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि जाव अजोगी वि, उवओगपरिणामेणं जहा णेरइया (सु. ९३८), णाण-परिणामेणं आभिणिबोहियणाणी वि जाव केवलणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं तिणि वि अण्णाणा, दंसणपरिणामेणं तिनि वि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरित्ती वि अचरित्ती वि चरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि नपुंसगवेयगा वि अवेयगा वि। [९४३] मनुष्य, गतिपरिणाम से मनुष्यगतिक हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय भी; कषायपरिणाम से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी तथा अकषायी भी होते हैं; योगपरिणाम से मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी भी होते हैं; उपयोगपरिणाम से (सू. ९३८ में उल्लिखित) नैरयिकों के (उपयोगपरिणाम के) समान हैं; अज्ञानपरिणाम से (इनमें) तीनों ही अज्ञान वाले होते हैं; दर्शनपरिमाण से (इनमें) तीनों ही दर्शन (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन) होते हैं; चारित्रपरिणाम से (ये) चारित्री भी होते हैं, अचारित्री भी और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी होते हैं; वेदपरिणाम ये (ये) स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक एवं नपुंसकवेदक भी तथा अवेदक भी होते हैं। विवेचन - मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्र (९४३) में मनुष्यों (समुच्चय मनुष्यजाति) की गति आदि दसों परिणामों की अपेक्षा से विचारणा की गई है। विशेषता - मनुष्य कई परिणामों से अन्य जीवों से विशिष्ट हैं तथा कई परिणामों से अतीत भी होते हैं, जैसे अनिन्द्रिय, अकषायी, अलेश्यी, अयोगी, केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवेदक आदि। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८७ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठा), पृ. २३०-२३१ पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ), पृ. २३२ २.
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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