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________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४२७ [१४२५-१ प्र.] भगवन् ! (क्या) असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उसमें से) कोई (पृथ्वीकायिक में) उत्पन्न होता है (और) कोई उत्पन्न नहीं होता। [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणसाए ? गोयमा ! नो इणढे समढे । [१४२५-२ प्र.] भगवन् ! जो (असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [३] एवं आउ-वणस्सईसु वि । [१४२५-३ प्र.] इसी प्रकार अष्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के (उत्पन्न होने तथा धर्मश्रवण के) विषय में समझ लेना चाहिए । १४२६. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदियचउरिदिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इणढे समढे । अवसेसेसु पंचसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियादिसु असुरकुमारे जहा णेरइए (सु. १४२०-२२)। [१४२६-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (क्या) सीधा (अनन्तर) तेजस्कायिक, वायुकायिक (तथा) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अवशिष्ट पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक आदि (मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) इन पांचों में असुरकुमार की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता [सू १४२०-२२ में उक्त] नैरयिक (की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए ।) [२] एवं जाव थणियकुमारे । [१४२६-२] इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिये । १४२७. [१] पुढविकाइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इणठे समढे । [१४२७-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से उद्वर्त्तन कर (क्या) सीधा
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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