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बीसवाँ अन्तक्रियापद]
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[१४२५-१ प्र.] भगवन् ! (क्या) असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! (उसमें से) कोई (पृथ्वीकायिक में) उत्पन्न होता है (और) कोई उत्पन्न नहीं होता। [२] जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणसाए ? गोयमा ! नो इणढे समढे ।
[१४२५-२ प्र.] भगवन् ! जो (असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [३] एवं आउ-वणस्सईसु वि ।
[१४२५-३ प्र.] इसी प्रकार अष्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के (उत्पन्न होने तथा धर्मश्रवण के) विषय में समझ लेना चाहिए ।
१४२६. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदियचउरिदिएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा ! णो इणढे समढे । अवसेसेसु पंचसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियादिसु असुरकुमारे जहा णेरइए (सु. १४२०-२२)।
[१४२६-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (क्या) सीधा (अनन्तर) तेजस्कायिक, वायुकायिक (तथा) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अवशिष्ट पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक आदि (मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) इन पांचों में असुरकुमार की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता [सू १४२०-२२ में उक्त] नैरयिक (की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए ।)
[२] एवं जाव थणियकुमारे । [१४२६-२] इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिये ।
१४२७. [१] पुढविकाइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा?
गोयमा ! णो इणठे समढे । [१४२७-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से उद्वर्त्तन कर (क्या) सीधा