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[ प्रज्ञापनासूत्र
प्राप्त नहीं होता, तब मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान कहाँ से प्राप्त होगा ! मनुष्यों में भी उसी को मन:पर्यायज्ञान प्राप्त होता है, जो अनगार हो, अप्रमत्त तथा निर्मल चारित्री एवं ऋद्धिमान् हो ।'
मुंडे भवित्ता : भावार्थ - मुण्ड दो प्रकार का होता है- द्रव्यमुण्ड और भावमुण्ड । केशादि कटाने से द्रव्यमुण्ड होता है, सर्वसंग परित्याग से भावमुण्ड का ग्रहण किया गया है । अर्थात्-भाव से मुण्डित होकर।*
सिज्झेज्जा बुज्झेजा मुच्चेज्जा: प्रासंगिक विशेषार्थ - सिज्झेज्जा - सर्व कार्य सिद्ध कर लेता है, कृतकृत्य हो जाता है, बुज्झेज्जा - समस्त लोकालोक के स्वरूप को जानता - देखता है, मुच्चेज्जा - भवोपग्राही कर्मों से भी मुक्त हो जाता है।
असुरकुमारादि की उत्पत्ति की प्ररूपणा
१४२३. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोमा ! णो इण समट्ठे ।
[१४२३ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (सीधा) नैरयिकों में उत्पन्न होता
है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है।
१४२४. असुरकुमारे णं भंते! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जिज्जा ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । एवं जाव थणियकुमारेसु ।
[१२२४ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल (उद्वर्त्तन) कर (सीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार यावत् स्तनिकुमारों में भी (असुरकुमार, असुरकुमारों में से उद्वर्त्तन करके सीधे ) उत्पन्न नहीं होते, यह समझ लेना चाहिए।
१४२५. [ १ ] असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविक्काइए उववज्जेज्जा ?
हंता ! गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा ।
१.
२.
वही. पत्र ४००
मुण्डो द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन, भावतः सर्वसंगपरित्यागेन । तत्रेह द्रव्यमुण्डत्वासंभवात् भावमुण्डः परिगृह्यते । वही, पत्र ४००
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