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हैं-बीसवाँ और इक्कीसवाँ भंग । सप्तप्रदेशीस्कन्ध में बीसवाँ भंग - कथंचित् एक चरम - एक अचरम - अनेक (दो) अवक्तव्य । वह इस प्रकार घटित होता है - जब सात आकाश प्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब
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समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्ती दो-दो परमाणुओं के कारण वह
‘चरम' है, मध्यवर्ती परमाणु के कारण 'अचरम' है और विश्रेणी में स्थित पृथक्-पृथक् दो परमाणुओं के कारण वह अनेक अवक्तव्य भी है। इस प्रकार इन तीनों के समुदितरुप में सप्तप्रदेशीस्कन्ध को एक चरम, एक अचरम एवं अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इनमें २१ वाँ भंग कथंचित् एक चरम, अनेक अचरम और एक अवक्तव्यरुप भी घटित होता है। वह इस प्रकार - जब सात आकाशप्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब उसकी स्थापना के अनुसार 0000 समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्वी एक - एक परमाणु की अपेक्षा
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उसकी स्थापना के अनुसार 000
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से वह चरम है, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से वह अनेक अचरमरूप है और विश्रेणी में स्थित एक परमाणु के कारण वह अवक्तव्य है । इन तीनों के समुदायरूप सप्तप्रदेशी स्कन्ध को एक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य कहा जा सकता है । यों सप्तप्रदेशी स्कन्ध में १७ भंगों के सिवाय शेष ९ भंग नहीं पाए जाते।
अष्टप्रदेशीस्कन्ध में १८ भंग - इस स्कन्ध में १७ भंग तो सप्तप्रदेशी स्कन्ध में जो बताए गए हैं, वे ही हैं। केवल २२ वाँ भंग-एक चरम, अनेक (दो) अचरम और अनेक (दो) अवक्तव्य अधिक हैं । २२ वाँ भंग इस प्रकार घटित होता है-आठ आकाशप्रदेशों में जब अष्टप्रदेशीस्कन्ध अवगाहन करता है, तब उसकी
अनुसार समश्रेणी में स्थित पर्यतवर्ती परमाणुओं की अपेक्षा से चरम,
मध्यवर्ती दो
परमाणुओं की अपेक्षा से दो अचरम एवं विश्रेणी में स्थित दो परमाणुओं के कारण दो अवक्तव्य होते हैं । इन तीनों के समुदायरूप अष्टप्रदेशीस्कन्ध का एक चरम, अनेक अचरम तथा अनेक अवतरूरूप कहा जा सकता है। इस प्रकार अष्टप्रदेशीस्कन्ध में १८ भंग होते हैं, शेष ८ भंग इसमें नहीं पाये जाते ।
स्थापना
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प्रज्ञापनासूत्र
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असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्तानन्त स्कन्धों का अवगाहन कैसे - यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि समग्र लोक तो असंख्यात प्रदेशात्मक है, उसमें असंख्यात प्रदेशात्मक और अनन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों का अवगाहन कैसे हो जाता है? इसका समाधान है, लोक का महात्म्य ही ऐसा है कि केवल ये दो स्कन्ध नहीं, बल्कि अनन्तानन्त द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त संख्यातप्रदेशी, अनन्तानन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्तानन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्ध इसी एक लोक में ही अवगाढ़ होकर उसी तरह रहते हैं, जिस तरह एक भवन में एक दीपक की तरह हजारों दीपकों की प्रभा के परमाणु रहते हैं।
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, प. २४० (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. १९९ से २०१
२.
प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक २३४ से २३९ तक
३.
वही म. वृत्ति, पत्रांक २३४ से २३९ तक