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________________ १८४] [प्रज्ञापनासूत्र है ? इसका उत्तर भी भगवान् ने स्वीकृतिसूचक दिया है। इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवाँ थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-अलोकद्वार १००२. आगासथिग्गले णं भंते ! किणा फुडे ? कइहिं वा काएहिं फुडे ? किं धम्मत्थिकारणं फुडे ? किं धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे ? धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे ? एवं अधम्मत्थिकारणं आगासत्थिकाएणं? एएणं भेदेणं जाव किं पुढविकाइएणं फुडे जाव तसकाएणं फुडे ? अद्धासमएणं फुडे? ___ गोयमा ! धम्मत्थिकाएणं फुडे, णो धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे। एवं अधम्मत्थिकाएणं वि। णो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे जाव वणप्फइकाइएणं फुडे । तसकाएणं सिय फुडे, सिय णो फुडे। अद्धासमएणं देसे फुडे, देसे णो फुडे । [१००२ प्र.] भगवन् ! आकाश-थिग्गल (अर्थात् - लोक) किस से स्पृष्ट है ?, कितने कार्यों से स्पृष्ट है ?, क्या (वह) धमोस्तिकाय से स्पृष्ट है, या धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है, अथवा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है? इसी प्रकार (क्या वह) अधर्मास्तिकाय से (तथा अधर्मास्तिकाय के देश से, या प्रदेशों से) स्पृष्ट है? (अथवा वह) आकाशस्तिकाय से, (या उसके देश, या प्रदेशों से) स्पृष्ट है ? इन्हीं भेदों के अनुसार (क्या वह पुद्गलस्तिकाय से, जीवास्तिकाय से तथा पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् (वनस्पतिकाय तथा) त्रसकाय से स्पृष्ट है ? (अथवा क्या वह) अद्धासमय से स्पृष्ट है ? [१००२ उ.] गौतम ! (वह आकाशथिग्गल-लोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है: इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से भी (स्पृष्ट है, अधर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं, अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है।) आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है (तथा पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं है, अद्धा-समय (कालद्रव्य) से देश से स्पृष्ट है तथा देश से स्पृष्ट नहीं है । १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०६ (ख) यही मन्तव्य नेत्रपट को लेकर अन्यत्र भी कहा गया है - 'जह खलु महप्पमाणो नेत्तपडो कोडिओ नहग्गंमि । तंमि वि तावइए च्चिय फुसइ पएसे (विरल्लिए वि)॥' (अर्थात्- संकुचित किया हुआ नेत्रपट जितने आकाशप्रदेश में रहता है, विस्तृत करने (फैलाने) पर भी वह (नेत्रपट) उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता है ।) - प्रज्ञापना. म. वृत्ति. पत्रांक ३०६ में उद्धृत
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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