________________
पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक]
[१८३
'अद्दाइं पेहति' और 'नो अद्दाइं पेहति' इस प्रकार यहाँ पाठभेद है । विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने स्वीकृत पाठों का समर्थन भी किया है। पाठान्तर के अनुसार अर्थ होता है - दर्पण को नहीं देखता। तत्त्व केवलिगम्य है। उन्नीसवाँ वीसवाँ कम्बलद्वार-स्थूणाद्वार
१०००. कंबलसाडए णं भंते ! आवेढियपरिवेढिए संमाणे जावतियं ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठति विरल्लिए वि य णं समाणे तावतियं चेव ओवासंतरं फुसित्ता णं चिट्ठति ?
हंता गोयमा ! कंबलसाडए णं आवेढियपरिवेढिए समाणे जावतियं तं चेव । . [१००० प्र.] भगवन् ! कम्बलरूप शाटक (चादर या साड़ी) आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ (लपेटा हुआ, खूब लपेटा हुआ) जितने अवकाशान्तर (आकाशप्रदेशों) को स्पर्श करके रहता हैं, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर (आकाश-प्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है ?
[१००० उ.] हाँ, गौतम ! कम्बलशाटक आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता हैं, फैलाये जाने पर भी वह उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता हैं।
१००१. थूणा णं भंते ! उड्ढं ऊसिया समाणी जावतियं खेत्तं ओगाहित्ता णं चिट्ठति तिरियं पि य णं आयया समाणी तावतियं चेव खेत्तं ओगाहित्ता णं चिट्ठति ?
हंता गोयमा ! थूणा णं उड्ढे ऊसिया तं चेव जाव चिट्ठति ।
[१००१ प्र.] भगवन् ! स्थूणा (ढूंठ, बल्ली या खम्भा) ऊपर उठी हुई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हुई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ?
[१००१ उ.] हाँ, गौतम ! स्थूणा ऊपर (ऊँची) उठी हुई जितने क्षेत्र को,.........(इत्यादि उसी पाठ को यावत् (उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके) रहती है, (कहना चाहिए ।)
विवेचन - उन्नीसवाँ-वीसवाँ कम्बलद्वार-स्थूणाद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः कम्बल और स्थूणा को लेकर आकाशप्रदेशस्पर्शन और क्षेत्रावगाहन की चर्चा की गई है।
अतीन्द्रिय वस्तुग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रस्तुत दोनों द्वारों में अतीन्द्रिय वस्तुओं के ग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। उनका आशय क्रमशः इस प्रकार है - (१) कम्बल को तह पर तह करके लपेट दिए जाने पर वह जितने आकाशप्रदेशों को घेरता है, क्या उसे फैला दिए जाने पर वह उतने ही आकाशप्रदेशों को घेरता है ? भगवान् का उत्तर हाँ में है । (२) स्थूणा (थून) ऊँची खड़ी की हुई, जितने क्षेत्र को अवगाहन कर (व्याप्त करके) रहती है, क्या वह तिरछी लम्बी पड़ी हुई भी उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती (व्याप्त करती)