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________________ ३१६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र १२११. से णूणं भंते ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु जाव सुक्कलेसेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति ? पुच्छा । हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेस्सेसु जाव सुक्कलेस्सेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, सिय कण्हलेस्से उव्वट्टति जाव सिय सुक्कलेस्से उव्वट्टति, सिंय जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उव्वट्टति । [१२११ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला यावत् शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या उसी कृष्णादि श्या से युक्त होकर (मरण) करता है ? इत्यादि पृच्छा । [१२११ उ.] हाँ गौतम ! कृष्णलेश्या वाला यावतृ शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेद्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर करता है, यावत् कदाचित् शुक्लेश्या से युक्त होकर करता है, (अर्थात्) कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्त्तन करता है, (कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्त्तन करता है ।) १२१२. एवं मणूसे वि । [१२१२] मनुष्य भी इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान छहों लेश्याओं में से किसी भी लेश्या से युक्त होकर उसी लेश्या वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा इसका उद्वर्त्तन भी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के समान चाहिए।) १२१३. वाणमंतरे जहा असुरकुमारे ( सु. १२०९) । [१२१३] वाणव्यन्तर देव का ( सामूहिक लेश्यायुक्त उत्पाद और उद्वर्तन सू. १२०९ में उक्त ) असुरकुमार की तरह समझना चाहिए । १२१४. जोइसिय-वेमाणिए वि एवं चेव । नवरं जस्स जल्लेसा, दोण्ह वि चयणं ति भाणियव्वं । [१२१४] ज्योतिष्क और वैमानिक देव का उत्पाद - उद्वर्त्तनसम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए। विशेष यह है कि जिसमें जितनी लेश्याएँ हों, उतनी लेश्याओं का कथन करना चाहिए तथा दोनों (ज्योतिष्कों और वैमानिकों) के लिए उद्वर्त्तन के स्थान में 'च्यवन' शब्द कहना चाहिए । विवेचन - चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का लेश्या की अपेक्षा से सामूहिक उत्पाद - उद्वर्त्तन सम्बन्धी निरूपण प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १२०८ से १२१४ तक) में चौवीसदण्डकवर्ती प्रत्येक दण्डकीय जीव की संभावित लेश्याओं को लेकर सामूहिकरूप से उत्पाद - उद्वर्तन की पुनः प्ररूपणा की गई है। इन सूत्रों के पुनरावर्तन का कारण यद्यपि नारकों से वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से - -
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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