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[ प्रज्ञापनासूत्रं
प्रभाव से उसका अवधिज्ञान विभंगज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्वप्राप्ति के अनन्तर समय में ही जब उस विभंगज्ञानी देव, मनुष्य या पंचेन्द्रियतिर्यच की मृत्यु हो जाती है, तब विभंगज्ञान का अवस्थान एक समय तक ही रहता है। जब कोई मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रियतिर्यच या मनुष्य करोड़ पूर्व की आयु के कतिपय वर्ष व्यतीत हो जाने पर विभंगज्ञान प्राप्त करता है और उक्त विभंगज्ञान के साथ ही सप्तम नरकभूमि में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होता है, उस समय विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का होता है। तदनन्तर वह जीव या तो सम्यक्त्व को प्राप्त करके अवधिज्ञानी बन जाता है, अथवा उसका विभंगज्ञान नष्ट ही हो जाता है।
ग्यारहवाँ दर्शनद्वार
१३५४. चक्खुदंसणी णं भंते ! ० पुच्छा ?
गोमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं ।
[१३५४ प्र.] भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है ?
[ १३५४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक (चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है) ।
१३५५. अचक्खुदंसणी णं भंते ! अचक्खुदंसणी त्ति कालओ केवचिरं होइ ?
गोयमा! अचक्खुदंसणी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा जवस २ ।
[१३५५ प्र.] भगवन् ! अचक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनीयरूप में कितने काल तक रहता है ? [१३५५ उ.] गौतम ! अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार अपर्यवसित और २. अनादि - सपर्यवसित ।
१. अनादि
१३५६. ओहिदंसणी णं० पुच्छा ?
गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं सातिरेगाओ । [१३५६ प्र.] भगवन् ! अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनीरूप में कितने काल तक रहता है ?
[१३५६ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम तक (अवधिदर्शनीपर्याय में रहता है) ।
१३५७. केवलदंसणी णं० पुच्छा ?
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९०