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________________ + चोद्दसमं कसायपयं चौदहवाँ कषायपद प्राथमिक यह प्रज्ञापनासूत्र का चौदहवाँ पद है । कषाय संसार के वृद्धि करने वाले, पुनर्भव के मूल को सीखने वाले तथा शुद्धस्वभाव युक्त आत्मा को - क्रोधादिविकारों से मलिन करने वाले हैं तथा अष्टविध कर्मो के चय, उपचय, वन्ध, उदीरणा, वेदना आदि के कारणभूत हैं। जीव के आत्मप्रदेशो के साथ सम्बद्ध होने से इनका विचार करना अतीव अवश्यक है। इसी कारण कषायपद की रचना हुई है। इस पद में सर्वप्रथम कषायों के क्रोधादि चार मुख्य प्रकार बताए हैं। तदनन्तर बताया गया है कि ये चारों कषाय चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में पाए जाते हैं। तत्पश्चात् एक महत्त्वपूर्ण चर्चा यह की गई है कि क्रोधादि चारों कषायों के भाजन-अभाजन की दृष्टि से उनके चार आधार हैं-आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, उभयप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित । साथ ही क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के भी चार-चार कारण बताए हैं - क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि । संसार के सभी जीवों में कषायोत्पत्ति के ये ही कारण हैं । इसके पश्चात् क्रोधादि कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि तथा आभोगनिर्वर्तित आदि चार-चार प्रकार बता कर उनका समस्त संसारी जीवों मे अस्तित्व बताया है । अन्त में जीव द्वारा कृत क्रोधादि कषायों के फल के रूप में आठ कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा, इन ६ को पृथक्-पृथक् बताया है । जैन-आगमों में आत्मा के विभिन्न दोषों-विकारों का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है । उन दोषों का संग्रह भी पृथक्-पृथक् रूप में किया गया है, उनमें से एक संग्रह-प्रकार है - राग, द्वेष और मोह । परन्तु कर्मसिद्धान्त में प्रायः उक्त चार कषाय और मोह के आधार पर ही विचारणा की गई है । इससे पूर्ववद में आत्मा के विविध परिणामों का निरूपण किया गया है, उनमें से कषाय भी आत्मा का एक परिणाम है। इस पद का वर्णन सू.९५८ से लेकर ९७१ तक कुल १४ सूत्रों में है। + + + + (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २८९ (ख) देखिये 'कषायपाहुड' टीकासहित पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २३४ से २३६ तक (क) पण्णवणासुत्तं भा. २, कषायपद की प्रस्तावना, पृ. ९७ (ख) गणधरवाद (प्रस्तावना) पृ. १०० (ग) कषायपाहुड टीकासहित
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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