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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३९३ विभंगदर्शन नहीं। त्रिविध असंयत- १. अनादि-अपर्यवसित- जिसने कभी संयम पाया नहीं और कभी पाएगा भी नहीं, २. अनादि-सपर्यवसित- जिसने कभी संयम पाया नहीं, भविष्य में पाएगा, ३. सादि-सपर्यवसितजो जीव संयम प्राप्त करके उससे भ्रष्ट हो गया है, किन्तु पुनः संयम प्राप्त करेगा। सादि-सान्त असंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक असंयतपर्याय से युक्त रहता है। अनन्तकाल (अपार्ध पुद्गलपरावर्त) व्यतीत होने के पश्चात् उसे संयम की प्राप्ति अवश्य ही होती है। संयतासंयत एवं संयत का अवस्थानकाल - देशविरति की प्रतिपत्ति का उपयोग जघन्य अन्तर्मुहूर्त का होता है। अतएव यहाँ जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। देशविरति में दो करण तीन योग आदि अनेक भंग होते हैं । अतः उसे अंगीकार करने में अन्तर्मुहूर्त लग ही जाता है। सर्वविरति में सर्वसावध के त्याग के रूप में प्रतिज्ञा अंगीकार करने का उपयोग एक समय में भी हो सकता है, इसी कारण संयत का जघन्य काल एक समय कहा गया है। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत- जो संयत भी नहीं, असंयत भी नहीं और संयतासंयत भी नहीं, ऐसा जीव सिद्ध ही होता है और सिद्धपर्याय सादि-अनन्त है। साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग युक्त का अवस्थानकाल - जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है। छद्मस्थ जीवों का उपयोग, चाहे वह साकारोपयोग हो अथवा अनाकारोपयोग, अन्तर्मुहूर्त का ही होता है। केवलियों का एकसामयिक उपयोग यहाँ विवक्षित नहीं है। चौदहवाँ आहारद्वार १३६४. आहारए णं भंते ! • पुच्छा? गोयमा ! आहारए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य। १. सुत्ते विभंगस्स वि परूवियं ओहिदंसणं बहुसो । कीस पुणो पडिसिद्धं कम्मपगडीपगरणंमि ॥१॥ विभंगे वि दरिसणं सामण्ण-विसेसविसयओ सुत्ते । तं चऽविसिट्ठमणागारमेत्तं तोऽवहि विभंगाणं ॥२॥ कम्मपगडीमयं पुण सागारेयरविसेसभावे वि। न विभंगनाणदंसण विसेसणमणिच्छयत्तणओ ॥३॥ (प्रज्ञा. म. वृ. पत्र ३९१) - विशेषणवती (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण) २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९२ ३. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९२
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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