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अठारहवाँ कायस्थितिपद]
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नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमान बताया गया है।
संज्ञी-पर्याय की कालावस्थिति - जघन्य अन्तर्मुहूर्त अर्थात् जब कोई जीव असंज्ञीपर्याय से निकलकर संज्ञीपर्याय में उत्पन्न होता है और उस पर्याय में अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर पुनः असंज्ञी-पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, तब वह अन्तर्मुहूर्त तक ही संज्ञी-अवस्था में रहता है और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व काल तक संज्ञीजीव निरंतर संज्ञी रहता है।
असंज्ञीपर्याय की कालावस्थिति - जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकल तक असंज्ञीजीव निरन्तर असंज्ञीपर्याययुक्त रहता है। जब कोई जीव संज्ञियों में से निकल कर असंज्ञीपर्याय में जन्म लेता है, वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः संज्ञीपर्याय में उत्पन्न हो जाता है। उस समय यह अन्तर्मुहूर्त तक ही असंज्ञीपर्याय से युक्त रहता है।
नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अवस्थानकाल - नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव केवली है और केवली का काल सादि-अपर्यवसित है। बीसवाँ भवसिद्धिद्धार
१३९२. भवसिद्धि णं भंते ! ० पुच्छा । गोयमा ! अणादीए सपजवसिए।
[१३९२ प्र.) भगवन् ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव निरन्तर कितने काल तक भवसिद्धिक पर्याययुक्त रहता है ?
[१३९२ उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित है। १३९३. अभवसिद्धिए णं भंते ० पुच्छा। गोयमा ! अणादीए अपजवसिए।
[१३९३ प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धि (अभव) जीव लगातार कितने काल तक अभवसिद्धिकपर्याय से युक्त रहता है ?
[१३९३ उ.] गौतम ! (वह) अनादि-अपर्यवसित है। १३९४. णोभवसिद्धियणोअभवसिद्धिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं २०॥ [१३९४ प्र.] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव कितने काल तक लगातार नोभवसिद्धिक
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५