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________________ [ प्रज्ञापनासूत्र २८४ ] उपपन्नक, किन्तु औधिक नारकसूत्र की तरह असंज्ञीभूत और संज्ञीभूत नहीं करना चाहिए, क्योंकि सिद्धान्तानुसार असंज्ञी जीव प्रथम पृथ्वी में कृष्णलेश्या वाले नारक नहीं होते। पंचम आदि जिस नरकपृथ्वी में कृष्णलेश्या पाई जाती है, उसमें असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते। अतएव कृष्णलेश्यावान् नारकों में संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, ये भेद नहीं होते । इनमें मायी और मिथ्यादृष्टि नारक महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि वे (नारक) अत्यन्त उत्कृष्ट अशुभ स्थिति का उपार्जन करते हैं । मायी मिथ्यादृष्टि नारकों को उस अत्युत्कृष्ट अशुभ स्थिति में महावेदना होती है, इसके विपरीत अन्य अमायी सम्यग्दृष्टि नारकों को अपेक्षाकृत अल्प वेदना होती है। इसके अतिरिक्त शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त समुच्चय नारकों के समान ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों का कथन करना चाहिए । कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों की क्रियाविषयक प्ररूपणा - इसमें समुच्चय से कुछ विशेषता है । वस्तुतः कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्य सम्यग्दृष्टि आदि के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें से सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के तीन प्रकार हैं- संयमी, असंपमी और संयमासंयमी । जैसे औघिक (सामान्य) मनुष्यों के विषय में इन तीनों की क्रियाओं का कथन किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए । जैसे कि वीतरागसंयत मनुष्यों में कोई क्रिया नहीं होती । सरागसंयत मनुष्यों में दो क्रियाएँ होती हैंआरम्भिक और मायाप्रत्यया । कृष्णलेश्या प्रमत्तसंयतों में होती है, अप्रमत्तसंयतों में नहीं। सभी प्रकार के आरम्भ प्रमादयोग में होते है, अतः प्रमत्तसंयतों में आरम्भिकी क्रिया होती है और क्षीणकषाय न होने से उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी होती है । किन्तु जो संयतासंयत हैं, उनमें आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया, तीन तथा असंयत मनुष्य में इन तीनों के उपरांत चौथी अप्रत्याख्यानक्रिया भी पाई जाती है। ? ये कापोतलेश्या वाले नारकों का वेदनासूत्र - कापोतलेश्याविशिष्ट नारकों का वेदनाविषयक कथन समुच्चय नारकों के समान समझना चाहिए, यथा- कापोतलेश्याविशिष्ट नारक दो प्रकार के कहे है- संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, इत्यादि प्रकार से समझना चाहिए। असंज्ञी जीव भी प्रथम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होता है, जहाँ कि कापोतलेश्या का सद्भाव है। - तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारादि की वक्तव्यता- सिद्धान्तानुसार नारक, तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा विकलेन्द्रिय जीवों में तेजोलेश्या नहीं होती, इसलिए तेजोलेश्या की अपेक्षा से सर्वप्रथम असुरकुमारों का कथन किया है। तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों का वेदना के सिवाय शेष आहारादि षट्द्वारों विषय में कथन औधिक अर्थात्- समुच्चय असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। इनके वेदनासूत्र के विषय में ज्योतिष्क देवों वेदनासूत्र के समान समझना चाहिए। अर्थात् - इसकी अपेक्षा से असुरकुमारों के संज्ञीभूत, असंज्ञीभूत ये दो १. २. (क) 'असन्नी खलु पढमं'- प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४२ उद्धृत (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४२ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४३
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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