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चौदहवाँ कषायपद]
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में क्रोध आदि काषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद करके समस्त संसारी जीवों में उनके पाए जाने का निरूपण किया गया है तथा क्रोध आदि कषायों के प्रकारान्तर से आभोगनिर्वर्तित आदि चार प्रभेदों और समस्त संसारी जीवों में उनके सद्भाव की प्ररूपणा की गई है । ____ अनन्तानुबन्धी आदि चारों की परिभाषा - इन चारों कषायों के शब्दार्थो का विचार कर्म-प्रकृतिपद में किया जाएगा । यहाँ चारों की परिभाषा दी जाती है - अनन्तानुबन्धी - सम्यक्त्व गुणविघातक, अप्रत्याख्यानदेशविरतिगुणविघाती, प्रत्याख्यानावरण-सर्वविरतिगुणवघाति और संज्वलन-यथाख्यातचारित्रविघातक ।
आभोगनिर्वर्तित आदि चारों प्रकार के क्रोधादि की व्याख्या - आभोगनिर्वर्तित ( उपयोगपूर्वक उप्पन्न हुआ) क्रोध - जब दूसरे के अपराध को जानकर और क्रोध के पुष्ट कारण का अवलम्बन लेकर तथा प्रकारान्तर से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती, इस प्रकार का उपयोग (विचार) करके कोई क्रोध करता है, तब वह क्रोध आभोगनिर्वर्तित (विचारपूर्वक उत्पन्न) कहलाता है। अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध-(बिना उपयोग उत्पन्न हुआ)-जब यों ही साधारणरूप से मोहवश गुण-दोष की विचारणा से शून्य पराधीन बना हुआ जीव क्रोध करता है, तब वह क्रोध अनाभोगनिर्वर्तित कहलाता है । उपशान्त क्रोध- जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त न हो, वह 'उपशान्त' कहलाता है । अनुपशान्त क्रोध-जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त हो, वह 'अनुपशान्त' कहलाता है । कषायों से अष्ट कर्मप्रकृतियों के चयादि की प्ररूपणा
९६४.[१] जीवा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु ?
गौयमा ! चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु । तं जहा - कोहेणं १ माणेणं २ मायाए ३. लोभेणं ४ ।
[९६४-१ प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों (स्थानों)से आठ कर्मप्रकृतियों का चय किया ?
[९६४-१ उ.] गौतम! चार कारणों से जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियो का चय किया, वे इस प्रकार है१. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से और ४. लोभ से ।
[२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । [९६४-२] इसी प्रकार की प्ररूपणा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के विषय में समझनी चाहिए। ९६५.[१] जीवा णं भंते ! कतिहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणंति ? गौयमा ! चउहि ठाणेहिं । तं जहा - कोहेणं १ माणेणं २ मायाए ३ लोभेणं ४ ।
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प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २९१