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[प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! चउबिहे कोहे पण्णत्ते । तं जहा- अणंताणुबंधी कोहे १ अप्पच्चक्खाणे कोहे २ पच्चक्खाणावरणे कोहे ३ संजलणे कोहे ४ ।
[९६२-१ प्र.] भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[९६२-१ उ.] गौतम! क्रोध चार प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार-(१) अनन्तानुबन्धी कोध, (२) अप्रत्याख्यान क्रोध, (३) प्रत्याख्यानावरण क्रोध और (४) संज्वलन क्रोध ।
[२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
[९६२-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों) में (क्रोध के इन चारों प्रकारों की प्ररूपणा समझनी चाहिए ।)
[३] एवं माणेणं मायाए लोभेणं । एए वि चत्तारि दंडया।
[९६२-३] इसी प्रकार मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से, (इन चारचार भेदों का तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक में इनके पाए जाने का कथन करना चाहिए।) ये भी चार दण्डक होते हैं।
९६३.[१] कतिविहे णं भंते ! कोहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! चउविहे कोहे पण्णत्ते । तं जहा - आभोगणिव्वत्तिए अणाभोगणिव्वत्तिए उवसंते अणुवसंते।
[९६३-१ प्र.] भगवन ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[९६३-१ उ.] गौतम! क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार - (१) आभोगनिर्वर्तित, (२) अनाभोगनिर्वर्तित, (३) उपशान्त और (४) अनुपशान्त।
[२] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
[९६३-२] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों वक में चार प्रकार के क्रोध का कथन करना चाहिए।
[३] एवं माणेण वि मायाए वि लोभेण वि चत्तारि दंडया ।
[९६३-३] क्रोध के समान ही मान के, माया के और लोभ के (आभोगनिर्वर्तित आदि) चार-चार भेद होते हैं तथा (नारकों से लेकर वैमानिकों तक में) नाम, माया और लोभ के भी ये ही चार-चार भेद (दण्डक) समझने चाहिए ।
विवेचना - क्रोध आदि कषायों के द-प्रभेदों की प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९६२,९६३)