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सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक]
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आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में होता है, तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक; श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान में होता है।
[ २ ] एवं जाव पम्हलेस्से ।
[१२१६-२] इसी प्रकार (नील, कापोत और तेजोलेश्या) यावत् पद्मलेश्या वाले जीव में पूर्वोक्त सूत्रानूसार ज्ञानों की प्ररूपणा समझ लेना चाहिए ।
१२१७. सुक्कलेस्से णं भंते! जीवे कइसु णाणेसु होज्जा ?
गोयमा ! दोसु वा तिसु चउसु एगम्मि वा होज्जा, दोसु होमाणे आभिणिबोहियणाण० एवं जहेव कण्हलेस्साणं (सु. १२१६ [१]) तहेव भाणियव्वं जाव चउहिं, एगम्मि होमाणे एगम्मि केवलणाणे होज्जा ।
॥ पण्णवणाए भगवतीए लेस्सापदे ततिओ उद्देसओ समत्तो ॥
[१२१७ प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ?
[१२१७ उ.] गौतम ! शुक्ललेश्या जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतुज्ञान में होता है, तीन या चार ज्ञानों में हो तो (सूं. १२१६-१ में) जैसा कृष्णलेश्या वालों का कथन किया था, उसी प्रकार यावत् चार ज्ञानों में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है।
विवेचन - कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान- प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों ( १२१६-१२१७) में कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक से युक्त जीव पांच ज्ञानों में से कितने ज्ञानों वाला होता है ? इसका प्रतिपादन का गया है।
अवधिज्ञानरहित मनः पर्यायज्ञान किसी-किसी में अवधिज्ञानरहित मन: पर्यायज्ञान भी होता है, 'सिद्धप्राभृत' आदि ग्रन्थों में इसका अनेकबार प्रतिपादन किया गया है तथा प्रत्येक ज्ञान की क्षयोपशमसामग्री विचित्र होती है। आमर्ष-औषधि आदि लब्धियों से युक्त किसी अप्रमत्त चारित्री को विशिष्ट विशुद्ध अध्यवसाय में मन:अपर्यायज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त हो जाती है, किन्तु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त नहीं होती। उसे अवधिज्ञान के बिना भी मन: पर्यायज्ञान होता है ।
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कृष्णलेश्यावान् में मनः पर्यायज्ञान कैसे ? यहाँ शंका हो सकती है कि मन: पर्यायज्ञान तो अतिविशुद्ध परिणाम वाले व्यक्ति को होता है और कृष्णलेश्या संक्लेशमय परिणाम रूप होती है। ऐसी स्थिति में कृष्णलेश्या वाले जीव में मनःपर्यायज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक लेश्या के अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों जितने हैं । उनमें से कोई-कोई मन्द अनुभाव वाले अध्यवसायस्थान