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________________ ३४० ] [ प्रज्ञापनासूत्र इन भावलेश्याओं के कारणभूत द्रव्यसमूह भी स्थान कहलाते हैं । यहाँ उन्हीं को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस उद्देशक में कृष्णादिलेश्याद्रव्यों का ही प्ररूपण किया गया है। वे स्थान प्रत्येक लेश्या के असंख्यात होते हैं। तथाविध एक ही परिणाम के कारणभूत अनन्त द्रव्य भी एक ही प्रकार के अध्यवसाय के हेतु होने से स्थूल रूप से एक ही कहलाते हैं। उनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं- जघन्य और उत्कृष्ट । जो जघन्य लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे जघन्य और उत्कृष्ट लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे उत्कृष्ट कहलाते हैं । जो जघन्य स्थानों के समीपवर्ती मध्यम स्थान हैं, उनका समावेश जघन्य में और उत्कृष्टस्थानों के निकटवर्ती हैं, उनका अन्तर्भाव उत्कृष्ट में हो जाता है। ये एक-एक स्थान, अपने एक ही मूल स्थान के अन्तर्गत होते हुए भी परिणाम-गुण-भेद के तारतम्य से असंख्यात हैं। आत्मा में जघन्य एक गुण अधिक, दो गुण अधिक लेश्याद्रव्यरूप उपाधि के कारण असंख्य लेश्या - परिणामविशेष होते हैं । व्यवहारदृष्टि से वे सभी अल्पगुण वाले होने से जघन्य कहलाते हैं। उनके कारणभूत द्रव्यों के स्थान भी जघन्य कहलाते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थान भी असंख्यात समझ लेने चाहिए ।" पन्द्रहवाँ : अल्पबहुत्वाधिकार १२४७. एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुक्कलेस्साठाणाण य जहण्णगाणं दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्साठाणा दव्वट्टयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्सठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेस्साठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा दव्वट्टयाए असंखेजगुणा । पदेसट्टयाए- सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्साठाणा पएसट्टयाए, जहण्णगा णीललेस्सठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्सठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेस्सठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा; दव्वट्ठपदेसट्टयाए- सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सठाणा दव्वट्टयाए, जहण्णगा णीललेस्सट्ठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेस्सद्वाणा तेउलेस्सद्वाणा पम्हलेस्सट्ठाणा, जहण्णगा सुक्कलेस्सट्ठाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णएहिंतो सुक्कलेस्सठ्ठाणेहिंतो दव्वठ्ठयाए जहणणगा काउलेस्सट्टाणा पदेसट्टयाए अनंतगुणा, जहण्णगा णीललेस्सद्वाणा परसट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं जाव सुक्कलेस्सट्ठाणा । [१२४७ प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य तथा प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? १. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३६९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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