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सोलसमं पओगपयं सोलहवाँ प्रयोगपद
प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह सोलहवाँ प्रयोगपद है। मन-वचन-काय के आधार से होने वाला आत्मा का व्यापार प्रयोग कहलाता है। इस दृष्टि से यह पद महत्त्वपूर्ण हैं। अगर आत्मा न हो तो इन तीनों की विशिष्ट क्रिया नहीं हो सकती । जैनपरिभाषानुसार ये तीनों पुद्गलमय हैं। पुद्गलों का सामान्य व्यापार (गति) तो आत्मा के बिना भी हो सकता है, किन्तु जब पुद्गल मन-वचन-कायरूप में परिणत हो जाते हैं, तब आत्मा के सहकार से उनका विशिष्ट व्यापार होता है। पुद्गल का मन आदि रूप में परिणमन भी आत्मा के कर्म के अधीन है, इस कारण उनके व्यापर को आत्मव्यापार कहा जा सकता है। इसी आत्मव्यापार रूप प्रयोग के विषय में सभी पहलुओं से यहाँ विचार किया गया है। प्रस्तुत पद में दो मुख्य विषयों का प्रतिपादन किया गया है- (१) प्रयोग, उसके प्रकार और चौवीस . “दण्डकों में प्रयोगों की प्ररूपणा तथा (२) गतिप्रपात के पांच भेद और उनके प्रभेद और स्वरूप । सत्यादि चार मन:प्रयोग, चार वचनप्रयोग और सात औदारिक, औदारिकमिश्र आदि शरीर-कायप्रयोग, यों प्रयोग के १५ प्रकार हैं । तंदनन्तर समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में से किस में कितने प्रयोग पाए जाते हैं ? यह प्ररूपणा की गई हैं। तत्पश्चात् चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में से किसमें कितने बहुत्व-विशिष्ट प्रयोग सदैव पाए जाते हैं तथा एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा एकसंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुःसंयोगी कितने विकल्प पाए जाते हैं; उनकी प्ररूपणा की गई हैं । पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों की चर्चा समाप्त होने के बाद गतिप्रपात (गतिप्रवाद) का निरूपण है। सू. १०८६ से ११२३ तक में गति की चर्चा की गई हैं, जो प्रयोग से ही सम्बन्धित है। गतिप्रपात नामकं प्रकरण में जिन-जिन के साथ गति का सम्बन्ध है, उन सब व्यवहारों का संग्रह करके गति के पांच प्रकार बताए है- प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति।
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