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[ प्रज्ञापनासूत्र
[८१८-१ उ.] गौतम ! (आहारचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित्
अचरम है।
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[ २ ] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए ।
[८१८-२] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार ( कहना चाहिए ।)
८१९. [१] नेरइयाणं भंते ! आहारचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ?
गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि।
[८१९-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आहारचरम की दृष्टि से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [८१९ - १ उ.] गौतम ! ( अनेक नैरयिक आहारचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं । [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया ।
[८१९-२] वैमानिक देवों तक निरन्तर इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए ।)
८२०. [ १ ] णेरइए णं भंते ! भावचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ?
गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे ।
[८२०-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम ?
[८२० - १ उ.] गौतम ! ( एक नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से) कथंचित् चरम और कथञ्चित् अचरम है।
[२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए ।
[८२०-२] इसी प्रकार लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त (कथन करना चाहिए।)
८२१. [१] णेरड्या णं भंते ! भावचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ?
गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि ।
[८२१-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ?
[८२१ - १ उ.] गौतम ! ( अनेक नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं ।
[२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया ।
[८२१ - २] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिकों तक (प्रतिपादन करना चाहिए।)
८२२. [ १ ] णेरइए णं भंते ! वण्णचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ?