SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ ] [प्रज्ञापनासूत्र [८११-१ उ.] गौतम ! (स्थितिचरम की दृष्टि से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । [८११-२] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए।) ८१२.[१]णेरइए णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे। . [८१२-१ प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम है या अचरम ? [८१२-१ उ.] गौतम ! (भवचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है [२] एवं निरन्तरं जाव वेमाणिए । [८१२-२] (यों) लगातार (एक) वैमानिक तक इसी प्रकार (कहना चाहिए।) ८१३.[१] णेरइया णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि । [८१३-१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम हैं या अचरम हैं ? [८१३-१ उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक जीव भवचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [८१३-२] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। ८१४.[१] णेरइए णं भंते ! भासाचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे । [८१४-१ प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (एक) नैरयिक चरम है या अचरम? [८१४-१ उ.] गौतम ! (भाषाचरम की दृष्टि से) एक नैरयिक कथंचित् चरम है तथा कथंचित् अचरम [२] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । [८१४-२] इसी तरह लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy