SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [४५१ + कार्मणशरीर से हो सकती है । सर्वप्रथम औदारिक शरीर के भेद, संस्थान और प्रमाण, इन तीन द्वारों को क्रमशः एक साथ लिया गया है । औदारिक शरीर के भेदों की गणना में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-मनुष्य तक के जितने जीव-भेद-प्रभेद हैं, उतने ही भेद औदारिक शरीर के गिनाए हैं । औदारिक शरीर का संस्थान-आकृति का भी इतने ही जीवभेदों के क्रम से विचार किया गया है । पृथ्वीकाय का मसूर की दाल जैसा, अप्काय का स्थिर जलबिन्दु जैसा, तेजस्काय का सुइयों के ढेर-सा, वायुकाय का पताका जैसा और वनस्पतिकाय का नाना प्रकार का आकार है। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय एवं सम्मूछिमपंचेन्द्रिय का हुंडकसंस्थान है। सम्मूछिम के सिवाय बाकी के औदारिक शरीरी जीवों के छहों प्रकार के संस्थान होते है । औदारिकादि शरीर के प्रमाणों अर्थात्-ऊँचाई का विचार भी एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से किया गया है । वैक्रिश् शरीर का भी जीवों के भेदों के अनुसार विचार किया गया है । उनमें बादर-पर्याप्त वायु और पंचेन्द्रियतिर्यचों में संख्यात वर्षायुष्क पर्याप्त गर्भजों को उक्त शरीर होता है और पर्याप्त मनुष्यों में से कर्मभूमि के मनुष्य के ही होता है । सभी देवों एवं नारकों के वैक्रिय शरीर होता है, यह बता कर उसकी आकृति का वर्णन किया है । भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, इन दोनों को लक्ष्य में रखा गया है । आहारक शरीर एक ही प्रकार का है । वह कर्मभूमि के ऋद्धिसम्पन्न प्रमत्तसंयम मनुष्य को ही होता है । उसका संस्थान समचतुरत्न होता है । उत्कृत्ट ऊँचाई पूर्ण हाथ जितनी होती है ।' तैजस और कार्मण शरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के होता है । इसलिए जीव के भेदों जितने हों उसके उतने भेद होते हैं । तैजस और कार्मण शरीर की अवगाहना का विचार मारणान्तिकसमुद्घात को लक्ष्य में रख कर किया गया है । मृत्यु के समय जीव को मर कर जहाँ जाना होता है, वहाँ तक की अवगाहना यहाँ कही गई है । शरीर के निर्माण के लिए पुद्गलों का चय-उपचय एवं अपचय कितनी दिशाओं से होता है-इसका उल्लेख भी चौथे द्वार में किया गया है । पाँचवें द्वार में-एक जीव में एक साथ कितने शरीर रह सकते हैं ? उसका उल्लेख है । छठे द्वार में शरीरगत द्रव्यों और प्रदेशों के अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है । सातवें द्वार में अवगाहना का अल्पबहुत्व जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा से प्रतिपादित है । मूलपाठ में ही उक्त सभी विषय स्पष्ट हैं । + + * (ख) तैत्तिरीयोपनिषद् भृगुवल्ली (वेलवलकर) २. (क) भगवती १७।१ सू. ५९२ (ग) सांख्यकारिका (वेलवलकर और रानडे) पण्णवणासुत्तं भा. २, पृ. ११७. वही, भा. २, पृ. ११८ वही, भा. २, पृ. ११९ ४.
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy