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________________ २३६ ] [ प्रज्ञापनासूत्र [ १०७४ उ.] गौतम ! (उनके) तेरह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार - (१) सत्यमन: प्रयोग, (२) मृषामनःप्रयोग, (३) सत्यमृषामन: प्रयोग, (४) असत्यामृषामन: प्रयोग इसी तरह चार प्रकार का (५ से ८ तक) वचनप्रयोग, (९) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग, (१०) औदारिकमिश्रशरीरकाय- प्रयोग (११) वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, (१२) वैक्रियमिश्रशरीरकाय प्रयोग और (१३) कार्मणशरीरकाय- प्रयोग | १०७५. मणूसाणं पुच्छा । गोयमा ! पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते । तं जहा- सच्चमणप्पओगे १ जाव कम्मासरीयकायप्ओगे १५ । [१०७५ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? [१०७५ उ.] गौतम ! उनके पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार - सत्यमन :- प्रयोग से लेकर कार्मणशरीरकाय- प्रयोग तक । १०७६. वाणमंतर जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. १०७०)। [१०७६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग के विषय में नैरयिकों (की सू. १०७० में अंकित वक्तव्यता) के समान (समझना चाहिए ।) विवेचन - समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में प्रयोगों की प्ररूपणा प्रस्तुत ८ सूत्रों (सू. १०६९ से १०७६ तक) में समुच्चय जीवों में कितने प्रयोग होते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष - समुच्चय जीवों में १५ प्रयोग होते हैं, क्योंकि नाना जीवों की अपेक्षा से सदैव पन्द्रह प्रयोग पाए जाते हैं। नैरयिकों तथा व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिकों में ग्यारह प्रयोग पाए जाते हैं, क्योंकि इनमें औदारिक, औदारिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र प्रयोग नहीं होते । वायुकायिकों को छोड़कर शेष चार पृथ्वीकायादि स्थावरों में तीन प्रयोग पाये जाते हैं- औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणशरीरकाय प्रयोग । वायुकायिकों में इन तीनों के उपरांत वैक्रिय और वैक्रियमिश्रशरीरका - प्रयोग भी पाए जाते हैं । द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियं जीवों में प्रत्येक के ४-४ प्रयोग पाए जाते हैं असत्यामृषाभाषाप्रयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मणशरीरकाय प्रयोग। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में आहारक और आहारकमिश्र को छोड़कर शेष १३ प्रयोग पाए जाते हैं, जबकि मनुष्यों में १५ ही प्रयोग पाए जाते हैं। समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा १०७७. जीवा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी ? गोमा ! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि जाव वेडव्वियमीससरीरकायप्पओगी १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२०
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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