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________________ २७४] [प्रज्ञापनासूत्र ११३५. अवसेसं जहा णेरइयाणं (सु. ११२९-३०)। [११३५] असुरकुमारों की क्रिया एवं आयु के विषय में शेष सब निरूपण (सू. ११२९-११३० के उल्लिखित) नैरयिकों (की क्रिया एवं आयुविषयक निरूपण) के समान (समझना चाहिए ।) । ११३६. एवं जाव थणियकुमारा । [११३६] इसी प्रकार (असुरकुमारों के आहारादि विषयक निरूपण की तरह नागकुमारों से लेकर) स्तनितकुमारों तक (का निरूपण समझना चाहिए ।) विवेचन - असुरकुमारादि भवनपतियों की समाहारादि-प्ररूपणा - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. ११३१ से ११३६ तक) में असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनपतिदेवों की आहारादि सप्त द्वारों द्वारा प्ररूपणा की गई है। असुरकुमारों आदि का महाशरीर - लघुशरीर - असुरकुमारों का अधिक से अधिक बड़ा शरीर सात हाथ का होता है। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से यह प्रमाण है। उनके लघशरीर का जघन्यप्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग का समझना चाहिए। उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा उनका महाशरीर उत्कृष्ट एक लाख योजन और लघुशरीर जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार जो असुरकुमार भवधारणीय शरीर की अपेक्षा जितने बड़े शरीर वाले होते हैं, वे उतने ही अधिक पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, और जितने लघुशरीर वाले हैं, वे उतने ही कम पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं । पूर्वोत्पन्न-पश्चादुत्पन्न असुरकुमारादि कर्म के विषय में नारकों से विपरीत - नारकों के विषय में कहा गया था कि पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्मा और पश्चादुत्पन्न नारक महाकर्मा होते हैं, किन्तु असुरकुमार जो पूर्वोत्पन्न हैं, वे महाकर्मा और जो पश्चादुत्पन्न हैं, वे अल्पकर्मा होते हैं। इसका कारण यह है कि असुरकुमार अपने भव का त्याग करके या तो तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होते हैं, या मनुष्ययोनि में। तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होने वाले कई एकेन्द्रियों में - पृथ्वीकाय, अप्काय या वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं, और कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, वे कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज और समूर्छिम मनुष्यों में नहीं। वहाँ छह महीना आयु शेष रहने पर परभव-सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं। आयु के बन्ध के समय एकान्त तिर्यञ्चयोग्य अथवा एकान्त मनुष्ययोग्य प्रकृतियों का उपचय करते हैं। इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार महाकर्म वाले होते हैं किन्तु जो बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अभी तक परभवसम्बन्धी आयुष्य नहीं बांधा है और न ही तिर्यञ्च या मनुष्य के योग्य प्रकृतियों का उपचय किया होता है, इस कारण वे अल्पतर कर्म वाले होते हैं। यह सूत्र पूर्ववत् समान स्थिति वाले, समान भववाले परिमित असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए । पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्ध वर्ण-लेश्यावाले, पश्चादुत्पन्न इसके विपरीत - असुरकुमारों को भव की अपेक्षा से प्रशस्त वर्णनामकर्म के शुभ तीव्र अनुभाग का उदय होता है। पूर्वोत्पन्न असुरकुमारों का शुभ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३६
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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