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सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक]
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अनुभाग बहुत-सा क्षीण हो चुकता है, इस कारण वे अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, किन्तु जो असुरकुमार बाद में उत्पन्न हुए हैं, उनके वर्णनाम कर्म के शुभ अनुभाग का बहुत-सा भाग क्षीण नहीं होता, विद्यमान होता है, अतएव वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं।
लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इस विषय में युक्ति यह है कि जो असुरकुमार पहले उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अपनी उत्पत्ति के समय से ही तीव्र अनुभाव वाले लेश्याद्रव्यों को भोग भोग कर उनका बहुत भाग क्षीण कर दिया है। अब उनके मन्द अनुभाग वाले अल्प लेश्याद्रव्य ही शेष रहे हैं । इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्धलेश्या वाले होते हैं और पश्चात् उत्पन्न होने वाले इनसे विपरीत होने के कारण विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं ।"
पृथ्वीकायिकों से तिर्यचपंचेन्द्रियों तक में समाहारादि सप्त प्ररूपणा
११३७. पुढविक्वाइया आहार- कम्म-वण्ण-लेस्साहिं जहा णेरइया (सु. ११२४-२७) ।
[११३७] जैसे (सु. ११२४ से ११२७ तक में) नैरयिकों के (आहार आदि के) विषय में कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों के (सम-विषम) आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में कहना चाहिए ।
११३८. पुढविक्वाइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा ?
हंता गोयमा ! सव्वे समवेयणा ।
सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ ?
गोमा ! पुढविक्काइया सव्वे असण्णी असण्णीभूयं अणिययं वेदणं वेर्देति, से तेणट्टेणं गोयमा ! पुढविक्वाइया सव्वे समवेदना |
[११३८ प्र.] भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकायिक समान वेदना वाले होते हैं ?
[११३८ उ.] हाँ गौतम ! सभी समान वेदना वाले होते हैं ।
[प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं ?
[उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी होते हैं । असंज्ञीभूत और अनियत वेदना वेदते (अनुभव करते) हैं। इस कारण हे गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समवेदना वाले हैं ।
११३९. पुढविक्काइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ?
हंता गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे समकिरिया ।
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(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३६-३३७ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ४ पृ. ३८