SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५४ ] [प्रज्ञापनासूत्र (४) तैजसशरीर-तैजसपुद्गलों से जो शरीर बनता है, वह तैजसशरीर कहलाता है । यह शरीर उष्मारूप और भुक्त आहार के परिणमन (पाचन) का कारण होता है । तैजसशरीर के निमित्त से ही विशिष्ट तपोजनित लब्धि वाले पुरुश के शरीर से तेजोलेश्या का निर्गम होता है । यह तैजसशरीर सभी संसारी जीवों को होता है, शरीर की उष्मा (उष्णता) से इसकी प्रतीति होती होता है । इसी कारण इसे तैजसशरीर समझना चाहिए । (५) कार्मणशरीर-जो शरीर कर्मज (कर्म से उत्पन्न) हो, अथवा जो कर्म का विकार हो, वह कार्मणशरीर है । आशय यह है, कि कर्म परमाणु ही आत्मप्रदेशों के साथ दूध-पानी की भांति एकमेक हो कर परस्पर मिलकर शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं, तब वे कार्मण (कर्मज) शरीर कहलाते हैं । कहा भी है-कार्मणशरीर कर्मों का विकार (कार्य) है, वह अष्टविध विचित्र कर्मों से निष्पन्न होता है । इस शरीर को समस्त शरीरों का कारण समझना चाहिए । अतः औदरिक आदि समस्त शरीरों का बीजरूप (कारणरूप) कार्मणशरीर ही है । जब तक भवप्रपञ्च रूपी अंकुर के बीजभूत कार्मणशरीर का उच्छेद नहीं हो जाता, तब तक शेष शरीरों का प्रादुर्भाव रुक नहीं सकता। यह कर्मज शरीर ही जीव को (मरने के बाद) दूसरी गति में संक्रमण कराने में कारण है । तैजससहित कार्मणशरीर के युक्त हो कर जीव जंब मर कर अन्य गति में जाता है । अथवा दूसरी गति से मनुष्यगति में आता है, तब उन पुद्गलों की अतिसूक्ष्मता के कारण जीव चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता । अन्यतीर्थिकों ने भी कहा है-"यह भवदेह बीच में (जन्म और मरण के मध्यकाल में) भी रहता है, किन्तु अतिसूक्ष्म होने के कारण शरीर से निकलता अथवा प्रवेश करता हुआ दिखाई नहीं देता ।" तैजस और कार्मणशरीर के बदले अन्य धर्मों में सूक्ष्म और कारण शरीर माना गया है । औदारिकशरीर में विधिद्वार १४७६. ओरालियंसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा-एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचेंदियओरालियसरीरे। [१४७६ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है । ___ (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०९ (ख) "सव्वस्स उम्हसिद्धं रसाइ आहारपाकजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्वं ॥" प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्राांक ४१० - ख) "कम्मविगारो कम्मणविहविचित्तकम्मनिष्फनं । . सर्वस सरीराणं कारणभूतं मुणेयव्वं ॥" (ग) “अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्कामन् प्रविशन् वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥"
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy